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________________ ५१. (गौतम स्वामी ने कहा-) “(हे महामुने) महामेघ (या महामेधा-महान्-प्रज्ञा) के स्रोत से श्रेष्ठ (पवित्र) जल लेकर मैं निरन्तर उन (अग्नियों) को सींचता रहता हूँ। सिंचित् हुई (ये अग्नियां) मुझे जला नहीं पातीं ।” ५२. केशी कुमार मुनि ने गौतम स्वामी से कहा- “आपने किन अग्नियों का कथन किया है?" यह कहने पर केशीकुमार को गौतम स्वामी ने यह कहा ५३.“(क्रोध आदि चार) कषायों को ‘अग्नि' कहा है। श्रुत, शील व तप (पवित्र) जल हैं । 'श्रुत' ज्ञान की धारा से प्रताड़ित/सिंचित् हुई (तथा निस्तेज होने से) विनष्ट-बुझ चुकी (वे अग्नियां) मुझे जला ही नहीं पातीं।" ५४. (श्रमण केशीकुमार ने कहा-) “हे गौतम! आपकी प्रज्ञा श्रेष्ठ है । आपने ने मेरा यह संशय भी दूर कर दिया। (किन्तु एक) अन्य संशय भी मुझे है, हे गौतम! उसके विषय में (भी) मुझे आप बताएं।” ५५. “यह दुःसाहसी भयंकर दुष्ट घोड़ा (चारों ओर) दौड़ता रहता है, जिस पर आप आरूढ़ हुए हैं, वह (दुष्ट घोड़ा आपको उन्मार्ग पर) कैसे नहीं ले गया?" ५६. (गौतमस्वामी ने कहा-) “(हे महामुने!) दौड़ने वाले (उस घोड़े) को मैं श्रुत(ज्ञान) की रस्सी (लगाम) से बांधे हुए हूँ, (नियंत्रित किए हूं।) (अतः) मुझे (वह घोड़ा) उन्मार्ग पर नहीं ले जाता, और वह (प्रशस्त) मार्ग पर (ही) चलता है।” ५७. केशीकुमार श्रमण ने गौतम स्वामी से कहा- “(आपने) अश्व किसे कहा है?" (तदनन्तर) यह कहने पर केशीकुमार को गौतम स्वामी ने यह कहा अध्ययन-२३ ४४५
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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