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________________ ४६. "जिस प्रकार (कोई) ग्वाला या भाण्डपाल (वेतन लेकर सामान की रक्षा करने वाला) उन (गाय व भाण्ड आदि) द्रव्यों का मालिक नहीं होता, उसी प्रकार आप मात्र मुनि-वेश के धारक भी श्रमणत्व (संयमादि) के स्वामी (वास्तविक अधिकारी) नहीं हो सकेंगे।" ४७. (इसलिये) “आप क्रोध, मान, माया व लोभ को सर्वांशतः निगृहीत करके, इन्दियों को वशीभूत कर, स्वयं को (अनाचार से) निवृत्त करें।" ४८. उस संयम-युक्त (साध्वी राजीमती) के सुभाषित वचन को सुनकर, अंकुश से (वशीभूत होने वाले) हाथी की तरह, वे (रथनेमि श्रमण) धर्म में सम्यक् प्रकार से स्थिर हो गए। ४६. वे मन, वचन व शरीर से गुप्त, जितेन्द्रिय व दृढ़व्रती हो गए, और उन्होंने श्रमण-चर्या का यावज्जीवन निश्चल (अविचलित) रूप में पालन किया। ५०. उग्र तप का आचरण कर, वे (रथनेमि व राजीमती) दोनों 'केवली' हुए, और उन्होंने समस्त कर्मों का क्षय कर, अनुत्तर 'सिद्धि' (लोकोत्तर, सर्वश्रेष्ठ 'मुक्ति') को प्राप्त किया। ५१. सम्बुद्ध (हेय-उपादेय के ज्ञाता), पण्डित (विषय-प्रवृत्ति के दोषों के ज्ञाता) व प्रविचक्षण (आगम-मर्मज्ञ, या चारित्र-युक्त व्यक्ति) ऐसा ही किया करते हैं। वे, पुरुषोत्तम (रथनेमि) की तरह, भोगों (के सेवन) से निवृत्त हो जाया करते हैं । -ऐसा मैं कहता हूँ। 00 अध्ययन-२२ ४२३
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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