SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 451
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६. उस रथनेमि को (संयम में) भग्नचित्त (उत्साहहीन) तथा (स्त्री-परीषह से) पराजित हुआ देख कर राजीमती घबराई नहीं, उसने वहीं अपने (शरीर) को (वस्त्रों से पुनः) बँक लिया। ४०. (अभिग्रह आदि) नियमों व (पंचमहा) व्रतों में सुस्थिर उस श्रेष्ठ राज-कन्या (श्रमणी) ने जाति, कुल एवं शील की रक्षा करते हुए उन (रथनेमि) से कहा ४१. “अगर आप रूप (सौन्दर्य) में कुबेर (भी) हों, लीला-विलास में नलकूबर हों, और अगर आप साक्षात् इन्द्र (भी) हों, तो भी में आपको नहीं चाहूंगी। ४२. “(हे रथनेमि! आपको यह ज्ञात होगा-) अगन्धन-कुल में पैदा होने वाले (सर्प) धूमशिखा वाली दुःसह प्रज्वलित अग्नि में प्रविष्ट हो (कर, मर जाते हैं, किन्तु वमन किये हुए) विष को (पुनः) पीना (कभी) नहीं चाहते। ४३. "हे अपकीर्ति के इच्छुक ! आपको धिक्कार है कि (तुच्छ सुख व भोगमय असंयमीय) जीवन के लिए आप अपने वमन किये गये (परित्यक्त) का (पुनः) पान करना चाह रहे हैं, इससे तो आपका मर जाना (कहीं) श्रेयस्कर होता।" “मैं 'भोज' राजा की (पौत्री) हूँ, और आप 'अन्धकवृष्णि' के (पौत्र) हैं। हम गन्धन सर्प की भांति (वमन किये हुए को पुनः पीने वाले) न बनें । आप स्थिर-चित्त होकर, संयम का आचरण करें।" ४४. ४५. “यदि आप स्त्री को देखकर (राग-पूर्ण) भाव करते रहेंगे, तो जहां-जहां नारी को देखेंगे (वहां) आप वायु (के झोंकों) से प्रकम्पित होने वाली 'हड़' (नामक वनस्पति) की तरह अस्थिर चित्त वाले होते रहेंगे।" अध्ययन-२२ ४२१
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy