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________________ ३२. प्रव्रजित होकर उस शील-सम्पन्न व बहुश्रुत (राजीमती) ने वहां (द्वारका में) बहुत-से स्वजनों व परिजनों को भी प्रव्रजित करवाया। ३३. (एक बार राजीमती) रैवतक पर्वत पर जाती हुई, बीच में वर्षा से भीग गई। वर्षा होने की स्थिति में वह अन्धकार वाली (एक) गुफा के अन्दर ठहर गई। ३४. (उस गुफा में राजीमती ने अपने) वस्त्रों को (सुखाने के लिये उतार कर) फैला दिया था। (गुफा में पहले से स्थित मुनि) रथनेमि ने (उसे) यथाजात (नग्न) रूप में देखा, और उनका चित्त भग्न (विचलित) हो गया। बाद में उस (राजीमती) की भी (उस पर) दृष्टि पड़ी। ३५. वहां एकान्त (स्थान) में उस संयमी को देख कर वह भयभीत हो गई, और बाहुओं से (अपने तन को) आवृत कर, कांपती हुई बैठ गई। ३६. तब, समुद्रविजय के अंगजात (पुत्र) उस राजकुमार (रथनेमि) ने भी (उसे) भयभीत व कांपती हुई देखकर, यह वाक्य कहा AL ३७. “भद्रे! मैं रथनेमि हूँ। सुरूपवती! चारुभाषिणी! तू मुझसे भयभीत न हो (मुझे स्वीकार कर)। हे सुतनु! (इससे) तुझे कोई पीड़ा नहीं होगी।” ३८. “आओ! हम (दोनों) भोगों का सेवन करें। मनुष्य-जन्म निश्चय ही अतिदुर्लभ है। भोगों को भोग लेने के बाद, (हम) जिन-मार्ग (संयम-चर्या) पर चल पड़ेंगे।" अध्ययन-२२ ४१६
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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