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________________ २४. भिक्षु असत्य-भाषण का त्याग करे, और निश्चयात्मक भाषा (भी) न बोले,' भाषा सम्बन्धी दोषों का, तथा माया (कपट) का सदैव परित्याग करे। २५. कोई पूछे, तो अपने लिए, दूसरों के लिए, या दोनों के (प्रयोजन की सिद्धि के लिए, या निष्प्रयोजन भी सावध (पापकारक), निरर्थक व मर्मभेदी (वचन) नहीं बोले । समर-स्थल, लोहार-शाला में, (शून्य) घरों में, दो घरों की सीमाओं की सन्धि हो-उस (खाली) स्थान में, तथा राज-मार्ग में (अर्थात् कहीं भी) एकाकी (भिक्षु) किसी अकेली स्त्री के साथ न तो खड़ा हो और न वार्तालाप करे । २७. प्रबुद्ध (आचार्य-जन) मुझे जो (कुछ भी) कठोर या शीतल-मृदु (वचनों से) शिक्षा देते हैं, वह मेरे लाभ के लिए है - ऐसा विचार करते हुए, (शिष्य उनके अनुशासन को) प्रयत्नशील होकर (कर्तव्य रूप में) स्वीकार करे। २८. (गुरु के समीप में रह कर प्राप्त और शिक्षादि का उपाय-भूत) 'अनुशासन' दुष्कृत्यों का निवारक होता है, उसे बुद्धिमान (शिष्य) हितकारी मानता है, (किन्तु) असाधु (अर्थात् अयोग्य शिष्य) के लिए (वही अनुशासन) द्वेष (या द्वेष का निमित्त) बन जाता है। २६. (जो) निर्भीक व प्रबुद्ध (शिष्य हैं वे) कठोर अनुशासन को भी हितकारी मानते हैं, (किन्तु) क्षमा-भाव (सहनशीलता) तथा (मानसिक) शुद्धि को उत्पन्न करने वाला (यह अनुशासन-रूप) 'पद' (भी) मूढ़ (शिष्यों) के लिए द्वेष (का निमित्त) बन जाता है। १. कहीं, कही हुई बात किन्हीं कारणों से घटित नहीं भी हो तो मिथ्या भाषण का दोष सम्भावित है - इस दृष्टि से 'निश्चयात्मक' भाषा का निषेध समझना चाहिए। अध्ययन १
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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