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________________ १२. अहिंसा, सत्य, अचौर्य और ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह (इन) पांच महाव्रतों को अंगीकार कर, विद्वान् (तत्वज्ञ मुनि) जिन-उपदिष्ट धर्म का आचरण करे । १४. १३. भिक्षु सभी प्राणियों के प्रति (हितोपदेश-प्रदान रूप) दया अनुकम्पा करने वाला, “क्षमा' भाव से सहनशील, संयत, ब्रह्मचारी, तथा इन्द्रियों का सम्यक संवरण करने वाला हो (और वह) सावध 'योग' (पापकारी प्रवृत्तियों) का त्याग करते हुए विचरण करे । (मुनि) अपने सामर्थ्य-असामर्थ्य को समझकर, यथासमय समयोचित (मुनि-चर्या का पालन करते हुए) राष्ट्र में विचरण करे । सिंह की तरह (किसी भयोत्पादक) शब्द से संत्रस्त न हो, और वाग्योग (कुवचनों) को सुनकर (भी) असभ्यतापूर्ण न बोले । १५. (मुनि अनुकूल व प्रतिकूल परिस्थितियों में) उपेक्षा-भाव से विचरण करे । प्रिय व अप्रिय-सभी (परीषहों) को (समभाव से) सहन करता रहे। सर्वत्र सभी (वस्तुओं) की अभिलाषा न रखे, और संयत होकर पूजा व निन्दा पर अपनी रुचि (या ध्यान) न रखे। १६. इस संसार में मनुष्यों के विविध प्रकार के अभिप्राय (छन्द) हुआ करते हैं, जिन्हें भिक्षु (भी स्वयं में) भाव रूप में सम्यक्तया ग्रहण करता है अथवा जानता है। देवों, मनुष्यों अथवा तिर्यञ्चों के (द्वारा उत्पादित) भयजनक व अतिरौद्र (उपसर्ग भी) प्रकट होते हैं (उन्हें मुनि सहन करे)। (संयम मार्ग में) अनेक दुस्सह उपसर्ग होते हैं, जहां बहुत-से कायर व्यक्ति खिन्न (व आचार-शिथिल) हो जाते हैं, किन्तु (सच्चा) भिक्षु, उन्हें प्राप्त कर, संग्राम में अग्रणी रहने वाले हस्तिराज की भांति व्यथित (विचलित) नहीं होता। DECHOOL SC अध्ययन-२१ ३६६
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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