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६. (उस बालक ने) बहत्तर कलाएं सीख लीं। (वह) नीतिशास्त्र का विद्वान् बन गया था, तथा यौवन-सम्पन्न होकर देखने में प्रिय एवं सुरूप लगने लगा ।
७. (उसे विवाह-योग्य जानकर ) पिता उस (समुद्रपाल) के लिए 'रूपिणी' (नाम की) रूपवती भार्या ले आए। (वह) 'दोगुन्दक' देव की तरह सुरम्य प्रासाद में क्रीड़ा करने लगा ।
८. तदनन्तर, कभी एक दिन, प्रासाद के झरोखे में बैठे हुए उसने 'वध्य' (मृत्यु-दण्ड प्राप्त व्यक्ति) के योग्य 'मण्डनों' (लाल कपड़े आदि चिन्हों) से अलंकृत एक वध्य (मृत्यु-दण्ड प्राप्त अपराधी ) को (राजपुरुषों द्वारा) बाहर (वध-स्थल की ओर) ले जाते हुए देखा । "
६. उस (अपराधी) को देख कर, समुद्रपाल संवेग (विरक्ति-भाव ) से युक्त होकर (मन ही मन ) यह कहने लगा-"अहो ! यह (इसके) अपने अशुभ कर्मों का पाप-रूप (कैसा दुःखद) परिणाम है !"
१०. वहां (झरोखे में) वह भगवान् (वैराग्य, ज्ञान आदि से सम्पन्न महान् आत्मा समुद्रपाल) परम संवेग (वैराग्य) को प्राप्त होकर, संबोधि-युक्त हो गया। वह माता-पिता से पूछ कर (उनकी अनुमति से) ‘अनगारता' (मुनि-चर्या) हेतु प्रव्रजित हो गया ।
११. (दीक्षित होने पर समुद्रपाल के मन में (स्वयं) आदर्श मुनि-चर्या का स्वरूप इस प्रकार स्फुरित हुआ, और जिसको उसने अपने जीवन में क्रियान्वित किया)
मुनि महान् क्लेशप्रद, महामोह-जनक व भयंकर समस्त आसक्ति को छोड़ कर, पर्याय-धर्म (चारित्र-धर्म) में, व्रतों में, शील-पालन में, तथा परीषहों (के सहन करने) में अभिरुचि रखे।
अध्ययन- २१
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