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________________ वाला विरत है। संयम व तप में श्रम करने वाला श्रमण है। ममत्व-परत्व की ग्रंथियों से मुक्त रहने वाला निर्ग्रन्थ है। सत्य व शान्ति का साकार रूप सन्त है। संसार व शरीर, दोनों के घरों से मोह विसर्जित करने वाला अनगार है। अनगार का धर्म क्या है? वह किन मूल्यों के लिये जीता है? क्यों जीता है? अपने मूल्यों के लिये जीने में जब अन्तर्बाह्य कठिनाइयाँ आती हैं तो क्या करता है? कैसे उनका सामना करता है? मान-अपमान की विभिन्न स्थितियाँ उत्पन्न होने पर उसका व्यवहार कैसा होता है? विभिन्न जीवों के प्रति वह कैसा भाव रखता है? संसार का उसके जीवन में क्या स्थान है? श्रमण-धर्म का स्वरूप क्या है? सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होने के लिये जीवन का कौन सी विशेषताओं से परिपूर्ण होना आवश्यक है? इन सभी प्रश्नों के उत्तर इस अध्ययन में प्राप्त होते हैं। &TTag समुद्रपाल की कथा धर्म-कथा है। कर्म-विज्ञान इसका आधार है। जिन कर्मों के परिणाम स्वरूप पालित को समुद्रपाल और समुद्रपाल को पालित प्राप्त हुए, उनका प्रत्यक्ष वर्णन यद्यपि यहाँ नहीं किया गया है परन्तु कर्म-विज्ञान की कारण-कार्य-शृंखला सहजता से उनका संकेत कर देती है। बता देती है कि उसकी पृष्ठभूमि में वे हैं। समुद्रपाल का वैराग्य उनके परम सार्थक जीवन के साथ-साथ इस अध्ययन की आधारभूत घटना भी है। यह घटना कर्म-फल व कर्म-प्रक्रिया के विषय में समुद्रपाल के गहन-गम्भीर चिन्तन-मनन के कारण सम्भव हुई। इसी मनन के परिणामस्वरूप वे मुनि हुए। उनके मुनि हो जाने पर मुनित्व की सारगर्भित विवेचना हुई। मुनित्व से वे मुक्ति तक पहुँचे। इस यात्रा की धर्म-कथा से अनेक हो चुके, हो रहे और होने वाले भव्य जीवों के लिये मुक्ति की राह उजागर हुई। परदेस में एक श्रेष्ठी ने अपनी पुत्री का विवाह पालित के गुणों के आधार पर उस से कर दिया। उस समय गुण अत्यन्त महत्वपूर्ण थे। समुद्रपाल की पत्नी 'रूपिणी' चौंसठ कला सम्पन्न थी। उस समय स्त्री-शिक्षा पर ध्यान देना गौरव की बात थी। समुद्रपाल ने मृत्यु - दण्ड प्राप्त अपराधी के दुष्कर्म की घोषणा व उसकी धिक्कार-यात्रा देखी। उस समय की न्याय-व्यवस्था अपराधों या दुष्कर्मों के प्रति घृणा का प्रबल-भाव उत्पन्न करती थी। भगवान् महावीर के समय की सामाजिकता के साथ-साथ श्रेष्ठतम जीवन का स्वरूप स्पष्ट करते हुए अपने जीवन का श्रेष्ठतम निर्माण स्वयं करने की प्रेरणा देने के कारण भी प्रस्तुत अध्ययन की स्वाध्याय मंगलमय है। अध्ययन- २१ ৬ ३६३
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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