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________________ अध्ययन परिचय चौबीस गाथाओं से निर्मित प्रस्तुत अध्ययन का केन्द्रीय विषय है-श्रमणधर्म के कर्त्तव्य। उनके पालन से श्रमण मुक्ति प्राप्त करता है। श्रमण-धर्म का स्वरूप यहाँ समुद्रपाल नामक श्रमण के माध्यम से उजागर किया गया है। इसीलिए इस अध्ययन का नाम 'समुद्रपालीय' रखा गया। भवसागर से पार उतारने वाली श्रमण-धर्म की समर्थ नौका का विवेचन होने से भी इस अध्ययन का नामकरण सार्थक है। समुद्रपाल के पिता पालित श्रावक भगवान् महावीर के शिष्य थे। इस से ज्ञात होता है कि धर्माराधना से आत्मा का कल्याण तो होता ही है, पुण्यबन्ध से समुद्रपाल जैसा पुत्र-रत्न भी प्राप्त होता है। ऊर्जस्वी सम्बन्ध भी मिलते हैं। कर्म-विज्ञान जैन धर्म का मूल आधार है। उसके अनुसार सुख-दु:ख शुभ-अशुभ कर्मों के ही परिणाम होते हैं। शरीर-प्राप्ति भी कर्म-परिणाम है। शरीर से सम्बन्धित समस्त सांसारिक संयोग-वियोग भी कर्म-परिणाम हैं। कारण हो तो कार्य होता ही है। कर्म हों तो सुख-दुःख मिले बिना नहीं रहते। पालित ने शुभ कर्मों का संचय किया था। उन्हें संपत्ति और कीर्ति मिली। उसकी शोभा और अधिक बढ़ाने वाला पुत्र मिला। समुद्रपाल भी पुण्योदयपरक स्थितियों से सम्पन्न थे। उन्हें सुन्दर देह मिली। उच्च कुल मिला। वैभवशाली संस्कारी परिवार मिला। बहत्तर कलाओं का ज्ञान मिला। रूपसी पत्नी मिली। सुख-भोग मिले। वैराग्य का सुअवसर मिला। श्रमणाचार पालन का गौरव मिला। मुक्ति का परम लक्ष्य मिला। ये सब परिणाम थे। कारण थे- शुभ कर्म। कर्म आत्मा के स्वभाव नहीं, पर-भाव हैं। मनुष्य-जन्म परभाव-मुक्ति व स्वभाव-प्राप्ति का दुर्लभ अवसर है। इसे पालित ने पहचाना था। तभी वे श्रावक व प्रभु-शिष्य हुए। उनके पुत्र समुद्रपाल ने इसे उन से भी अधिक पहचाना था। तभी वे श्रमण-आचार में निपुण हो कर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हुए। महत्त्वपूर्ण है-सत्य की पहचान। सत्य के अनुरूप जीने की प्रबल इच्छा और सामर्थ्य। सत्य के अनुरूप जीना ही श्रमण-धर्म है। सम्यक् चारित्र है। सम्यक् चारित्र साधने वाला भव्य जीव साधु है। शरीर को साधना का साधन मान उसके निर्वाह हेतु निर्दोष भिक्षाजीवी भिक्षु है। संचय और अहंकार से सदैव दूर रहने वाला भिक्षु, जितेन्द्रिय धर्म-साधक संयमी है। मन-वचन-काया को विवेक से नियंत्रित करने वाला संयत है। पापों से सर्वदा पूर्णत: अलग रहने ३६२ उत्तराध्ययन सूत्र
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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