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________________ LEO ५६. “हे संयत (मुने)! आप अनाथों के तथा समस्त प्राणियों के नाथ हो। हे महाभाग! मैं आपसे क्षमा मांगता हूं और आपसे अनुशासित होना (धर्म मार्ग की शिक्षा प्राप्त करना चाहता हूं।" ५७. “मैंने आपसे प्रश्न कर (आपके) ध्यान में जो विघ्न किया और भोगों के (सेवन) हेतु निमंत्रित किया मेरे उस सब (अपराध) को आप क्षमा करें ।” ५८. इस प्रकार वह राजसिंह (श्रेणिक) परम भक्ति से अनगार-सिंह (अनाथी मुनि) की स्तुति कर निर्मल मन से अपने अन्तःपुर (रानियों) व परिजनों के साथ धर्म के प्रति अनुरक्त (श्रद्धालु) हो गया। ५६. (उस समय) राजा के रोम-कूप (आनन्द से) उल्लसित हो रहे थे। वह प्रदक्षिणा करके, तथा (अन्त में) सिर झुकाकर, वन्दना कर (वापिस) लौट गया। ६०. और अन्य (अर्थात् अनाथी मुनि) भी (मुनि योग्य सत्ताईस) गुणों से समृद्ध, तीन गुप्तियों से सुरक्षित, तीन दण्डों से विरत, मोह (ममत्व आदि) से रहित एवं पक्षी की भांति विप्रमुक्त (अप्रतिबद्ध विहारी) होकर, भूतल पर विचरण करने लगे। -ऐसा मैं कहता हूं। 00 अध्ययन-२० ३८६
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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