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________________ अध्ययन-सार : phoospe वन-विहार करते-करते राजा श्रेणिक की दृष्टि एक ध्यानस्थ मुनि पर गई। मुनि से उनके श्रमण-जीवन अंगीकार करने का कारण जानना चाहा। मुनि ने मुनि बनने के पीछे अपनी अनाथता को कारण बताया। राजा श्रेणिक ने मुनि को उनकी अनाथता दूर करने का आश्वासन देते हुए उनके समक्ष विविध राजकीय सुख-भोग भोगने का प्रस्ताव रखा। मुनि ने कहा-राजन् आप स्वयं अनाथ हैं, फिर मेरे नाथ कैसे बन सकते हैं?' राजा को आश्चर्य हुआ। उन्होंने अपने अनाथ होने का कारण पूछा। मुनि ने बताया मैं कौशाम्बी नगरी के प्रतिष्ठित धनाढ्य परिवार में जन्मा था। विवाह भी मेरा उच्च कुल में हुआ था। समस्त सुख-सुविधा मुझे उपलब्ध थी, किन्तु एकाएक मैं असह्य अक्षि-रोग से ग्रस्त हो गया। चिकित्साओं तथा मंत्रादि का प्रयोग किया गया, किन्तु सब व्यर्थ सिद्ध हुआ। माता-पिता, भाई-बहिन, पतिव्रता पत्नी आदि पारिवारिक जनों का स्नेह तथा चिकित्सा हेतु अपार धन व्यय-ये मुझे वेदना से मुक्ति नहीं दिला सके। भला इससे बढ़ कर मेरी अनाथता क्या हो सकती थी? तब मन में विचार जागा-काश! एक बार भी इस वेदना से मुक्ति मिलती, तो मैं अनगार मुनि बन जाता। सोचते-सोचते नींद आ गई। रात बीतते-बीतते मेरी रोग-वेदना शान्त होती गई। प्रात:काल तक मैं स्वस्थ हो गया था। पूर्व-संकल्प के अनुसार मैं प्रव्रजित हुआ। अब मैं सभी जीवों का रक्षक अर्थात् 'सनाथ' हो गया था। 'अनाथ' व्यक्ति औरों को तो क्या, स्वयं को भी संसार-सागर से पार नहीं करा सकता। साधु-जीवन में अनेक अमर्यादित आचरणों से वह खोटे सिक्के की तरह अपनी अप्रामाणिकता, तथा खाली मुट्ठी की तरह अपनी निस्सारता ही सिद्ध करता है। उसकी दुष्प्रवृत्तिशील आत्मा ही उसके स्वयं के लिए दुर्गतिदायक सिद्ध होती है और उसके दुष्परिणामों से स्वयं को बचाने में वह असमर्थ-'अनाथ' रहता है। महानिर्ग्रन्थ अनाथी मुनि के वचनों को सुनकर राजा श्रेणिक ने अनाथ-सनाथ के अन्तर को समझा और श्रद्धा व भक्ति-भाव से सर झुकाया। अनाथी मुनि शुद्ध संयम साकार करते हुए विचरने लगे। 00 ३६० उत्तराध्ययन सूत्र
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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