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________________ ४५. “जो (मुनि) लक्षण शास्त्र व स्वप्न शास्त्र का (जीविका हेतु) प्रयोग करता है, निमित्तशास्त्र तथा कौतुकपूर्ण प्रयोगों में आसक्त रहता है तथा (कर्मों के) आस्रव की द्वार-भूत (या कारणभूत) कुहेट-विद्याओं (मिथ्या आश्चर्य पैदा करने वाली मंत्र-तन्त्र व जादूगरी आदि) से जीविका चलाता है, वह उस (निन्द्य कर्म से सम्बन्धित फल भोग के समय में (किसी रक्षक की) शरण प्राप्त नहीं कर सकता।” ४६. “वह शील-रहित (मुनि) घोर (अज्ञान रूपी) अन्धकार के कारण सर्वदा दुःखी होकर, विपरीत दृष्टि को प्राप्त करता है। वह असाधु (असंयमी) स्वरूप वाला मुनि धर्म की विराधना कर नरक व तिर्यंच योनियों में निरन्तर दौड़ता (आवागमन करता) रहता है।" ४७. “(उक्त दुःशील मुनि) औद्देशिक (साधु के लिए बने हुए) क्रीत-कृत (खरीद कर प्रदत्त) नियाग (विशेष आमंत्रित कर प्रदत्त आहार को तथा अन्य) अनेषणीय (अग्राह्य आहार) को किंचित् मात्र (भी) नहीं छोड़ता, (वह) अग्नि की भांति सर्वभक्षी होकर, एवं पाप (अर्जित) कर यहां से मर कर (दुर्गतियों में) जाता है।" ४८. “उस (कुशील मुनि) की स्वयं की दुरात्मता (दुराचारी आत्मा) जो (हानि) करती है, वैसी (हानि) गला काटने वाला शत्रु (भी) नहीं कर पाता (उक्त तथ्य को) वह दया (संयम आदि धर्म) से रहित (दुरात्मा) मृत्यु के मुख में पहुंच कर (मात्र) पश्चाताप के साथ, जान पाएगा।” ४६. “उस (असंयमी) की नग्नता (मुनि-चर्या) में रुचि निरर्थक (ही) है, जो उत्तम अर्थ (मोक्ष या अन्तिम समय की आराधना) के विषय में विपरीत बुद्धि रखने लगता है उसके लिए न तो यह लोक (सार्थक) है और न ही परलोक, उन (दोनों) लोकों में वह (निरन्तर चिन्तनीय स्थिति के कारण) क्षीण होता रहता है।" अध्ययन-२० ३८५
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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