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१६. “महाराज! प्रथम वय (यौवन) में मुझे, आंखों में अत्यधिक पीड़ा
हो गयी। हे पार्थिव! (इससे मेरे) सभी अंगों में विपुल दाह (जलन) पैदा हो गई।"
२०. “जिस प्रकार (कोई) क्रुद्ध शत्रु शरीर के छिद्रों (आंख, कान
आदि मर्म-स्थानों) के अन्दर (कोई) परम तीक्ष्ण शस्त्र घोंप देऐसी (असह्य) पीड़ा (मेरी) आंखों में हो रही थी।"
२१. “इन्द्र के वज्र-प्रहार के समान अत्यधिक दारुण व घोर वेदना
से मेरा त्रिक (कटि-भाग,) हृदय-स्थल और मस्तक पीड़ा से आकुल होता रहता था।"
२२. “(तब) विद्या व मंत्र से चिकित्सा करने वाले मन्त्र व मूल (जड़ी
बूटियों) के पूर्ण जानकार, अद्वितीय शस्त्र कुशल (या शल्य क्रिया विशेषज्ञ) आचार्य (चिकित्साचार्य) मेरे (उपचार के लिए
उपस्थित हुए।” २३. “(हे राजन्! मेरे) हित के अनुरूप उन्होंने मेरी (योग्य औषध,
योग्य परिचारक, योग्य चिकित्सक तथा रोगी की सजगता व श्रद्धा - इन चार को ध्यान में रखकर की जाने वाली या वमन, विरेचन, मर्दन व स्वेदन- इन चार स्वरूपों वाली) चतुष्पाद चिकित्सा (भी) की, (किन्तु वे) दुःख से (मुझे) मुक्त न करा सके
यही मेरी 'अनाथता' है।" - २४. “मेरे पिता ने मेरे लिए चिकित्सकों को अपना सर्वस्व दे डाला,
(किन्तु वे मुझे) दुःख से मुक्त न करा सके- यह (ही) मेरी अनाथता है।"
अध्ययन-२०
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