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१२. “हे माता-पिता! विषफल की भांति, अन्त में कटु-परिणाम वाले
तथा निरन्तर दुःखदायक भोगों को मैंने भोग लिया है।"
१३. “यह शरीर अनित्य, अशुचि (स्वयं अपवित्र) एवं अपवित्र
वस्तुओं से उत्पन्न (या अपवित्र वस्तुओं का उत्पत्ति स्थान) है । यहां (प्राणीलोक में) यह निवास (अर्थात् जीवन भी) अनित्य है
और दुःख-क्लेशों का पात्र है।” १४. “यह अनित्य शरीर पानी के बुलबुले की भांति (क्षणभंगुर) है,
पहले या बाद में इसे छोड़ना ही है, (अतः) इसमें मुझे आनन्द (का अनुभव) नहीं हो रहा है।”
१५. “व्याधियों व रोगों के घर तथा जरा-मरण से ग्रस्त इस तुच्छ
शरीर में एक क्षण भी मुझे सुख नहीं मिल रहा है।"
१६. “(यह) जन्म ‘दुःख' है, बुढ़ापा 'दुःख' है, रोग व मृत्यु (भी)
'दुःख' हैं। अहो! निश्चय ही (यह) संसार ही 'दुःख' है, जहां प्राणी क्लेश (ही) पाते रहते हैं।”
१७. “भूमि, गृह, सोना-चांदी, पुत्र, स्त्री, बन्धु-बान्धव (इन सब) को
तथा इस शरीर को (भी) छोड़कर मुझे (एक दिन) विवश होकर जाना ही है ।”
१८. “जिस प्रकार 'किम्पाक' (विष वृक्ष के) फलों का परिणाम सुन्दर
नहीं होता, इसी प्रकार, भोगे हुए (काम-) भोगों का परिणाम (भी) सुन्दर नहीं हुआ करता।"
अध्ययन-१६
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