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________________ आनन्द के सत्य की वार्ता है। माता-पिता द्वारा साधु-जीवन में रोगों के उचित उपचार तक का अभाव देखना पुत्र-सुरक्षा की चिन्ता करना है। मृगापुत्र द्वारा यह पूछना कि भयंकर गहन वन में एकाकी मृग के रोग का उपचार कौन करता है, स्वावलम्बन को सुरक्षा का परम माध्यम बताना है। शरीर-सुरक्षा से आत्म-सुरक्षा को कहीं ज्यादा, बहुत ज्यादा, महत्त्वपूर्ण बताना है। औषधियों के स्थान पर अपनी प्रतिरोधक क्षमता पर विश्वास करना है। प्रकृति पर विश्वास करना है। कर्म-विज्ञान पर विश्वास करना है। श्रमण-धर्म पर अत्यंतिक और अटूट विश्वास करना है। मृगा-पुत्र के उक्त प्रश्न में यह भाव भी निहित है कि पशु-पक्षियों और मनुष्य में एक जैसी आत्मा है। मनुष्य द्वारा पशु-पक्षियों को और पशु-पक्षियों द्वारा मनुष्य को बल देना अहिंसा का साकार होना है। मनुष्य की सहृदयता का विस्तृत होना है। उक्त प्रश्न वस्तुत: मोह को ज्ञान का समुचित उत्तर है। ज्ञान-पिपासु की विशेषता होती है कि ज्ञान यदि पशु-पक्षियों से भी मिले तो लेने में उसे कोई संकोच नहीं होता। उसका परिवार मात्र सगे-सम्बन्धियों तक सीमित नहीं होता। पूरी सृष्टि उसका परिवार बन जाती है। मृग-चर्या से श्रमण-चर्या की समानता इस ओर भी संकेत करती है कि जब मृग इस प्रकार जी सकता है तो मनुष्य क्यों नहीं! मृग और श्रमण, दोनों ही स्वावलम्बी और अप्रतिबद्ध विहारी होते हैं। जागरूक होते हैं। मृग सिंह से तो श्रमण पाप से भयाक्रान्त रहता है। मृग जिस घास पर से विहार करता निकलता है. वह घास नहीं खाता तो श्रमण सदोष आहार ग्रहण नहीं करता। पद-यात्रा में असमर्थ होने पर ही दोनों एक स्थान पर ठहरते हैं। मृगापुत्र का महान् चरित्र वस्तुत: वैराग्य की गहनता और दृढ़ता का प्रतिमान है। उसमें कहीं कोई विकल्प नहीं है। है तो एक मात्र एक संकल्प-श्रमण धर्म अंगीकार करना है। इस स्पष्टता से साहस भी उत्पन्न होता है और संसारियों को प्रत्येक-दृष्टि से साधु-जीवन समर्थक बना देने वाला युक्ति-युक्त वैचारिक प्रकाश भी। काम-भोगों का परिणाम, श्रमण-चर्या का (कठिन प्रतीत होने वाला) स्वरूप, उत्तम जीवन का मार्ग और आदर्श श्रमण-धर्म की विशेषताएं भी यहां बतलाई गई हैं। सांसारिकता व नरक से सावधान करने की विशिष्ट शक्ति के कारण भी प्रस्तुत अध्ययन की स्वाध्याय मंगलमय है। DHERIODEO अध्ययन-१६ ३३३
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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