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________________ अध्ययन परिचय इस अध्ययन में निन्यानवे गाथायें हैं। इस अध्ययन का केन्द्रीय विषय है- दृढ़ संकल्प द्वारा कठिनतम साधना व परम सिद्धि की प्राप्ति। यह प्रक्रिया सुग्रीव नगर की रानी मृगा व राजा बलभद्र के पुत्र बलश्री, जो मृगापुत्र के नाम से लोक-विश्रुत हैं, के माध्यम से घटित हुई है। इसलिये इस अध्ययन का नाम 'मृगापुत्रीय' रखा गया। मृगापुत्र से आशय ऐसे पराक्रमी पुत्र से भी है, जिसने मृगा को ही अपनी अन्तिम माता बना दिया। साधना-बल से यह सम्भव हुआ। मृग के समान एकाकी व स्वच्छन्द विहार तथा स्वावलम्बी जीवन-चर्या से युक्त होने के कारण साधु-चर्या को मृगापुत्र ने 'मृगचर्या' या 'मृगचारिका' के रूप में वर्णित किया है। अपने दृढ़ संकल्प व अकाट्य तर्कों से मृगापुत्र ने परिवार को सहमत करते हुए 'मृगचारिका' क्रियान्वित की थी। इस तथ्य से भी 'मृगापुत्रीय' नाम सार्थक होता है। मृगापुत्र ममता से समता की ओर अग्रसर हुए थे। वे युवराज थे। सुख-भोगों से उनका जीवन परिपूर्ण था। अपने प्रासाद के झरोखे से एक श्रमण को देख उन्हें जाति-स्मरण ज्ञान हुआ। जाना कि यह श्रमण-जीवन उनका पूर्व-आचरित जीवन है। विरक्त हो श्रमण-दीक्षा का दृढ़ निश्चय किया। माता-पिता के पास पहुंचे। वार्ता की। मन में विरक्ति इतनी थी कि मोह-ममता के लिये तृण-मात्र स्थान भी न था। परिणामतः वे स्वस्थ चित्त से वार्ता करने में और माता-पिता को अपने निश्चय का पक्षधर बनाने में सफल हुए। यह वार्ता इस अध्ययन का महत्त्वपूर्ण अंश है। साधक-जीवन की कठिनाइयां और मृगापुत्र की सुकुमारता इस वार्ता का एक पक्ष है तो नरक के मर्मांतक दुःखों का वर्णन और मृगापुत्र का निर्धान्त संकल्प-बल दूसरा। मृगापुत्र अपने अतीत की यात्रा ज्ञान-नेत्रों से देख रहे थे। उनके सामने यह सत्य पूर्णतः स्पष्ट था कि नरक के भीषण दु:खों को देखते हुए साधक-जीवन के सम्भावित परीषह रंच-मात्र भी दु:खद नहीं है। उन्होंने बताया कि नरक की कल्पनातीत यातनायें अनेक बार भोग चुके हैं वे और उनके लिये श्रमण-चर्या के परीषह समभाव से सहना कठिन नहीं, सहज होगा। नरक विवशता थी। साधु-जीवन चुनाव होगा। इसलिये उसके उपसर्ग भी आनन्द-दायी होंगे। माता-पिता व मृगापुत्र के माध्यम से यह वार्ता वस्तुतः मोह और ज्ञान की वार्ता है। सांसारिकता और वैराग्य की वार्ता है। सुखों के भ्रम और परम ३३२ उत्तराध्ययन सूत्र
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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