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________________ पहला अध्ययन : विनय-श्रुत १. (बाह्य व आन्तरिक) संयोगों (के बन्धनों) से विशेष-मुक्त अनगार भिक्षु के 'विनय' (अर्थात् आचार) धर्म को (में) क्रमशः प्रकट (निरूपण) करूंगा, जिसे (तुम) मुझसे सुनो। २. जो (गुरु के) आज्ञा (उपदेश) व निर्देश (वचन) का पालन करता है, गुरु के समीपवर्ती (रहते हुए उनके) इंगित (संकेत) व आकार (चेष्टा) को समझता है, उसे 'विनीत' कहा जाता है। ३. जो. (गुरु के) आज्ञा (उपदेश) व निर्देश (वचन) का पालन नहीं करता, गुरु के समीपवर्ती नहीं रहता, (गुरु के प्रतिकूल आचरण करता है तथा गुरु के इंगित व चेष्टा को नहीं समझता - न समझने वाला अज्ञानी है, उसे ‘अविनीत' कहा जाता है। ४. जैसे सड़े कान की कुतिया को सर्वत्र (सब स्थानों से) निकाला जाता है, उसी प्रकार दुराचारी, प्रतिकूल (आचरण करने वाले तथा वाचाल (निरर्थक बोलने वाले शिष्य) को सर्वत्र) निकाल दिया जाता है। ५. (जिस प्रकार) चावलों की भूसी को छोड़ कर सूअर विष्ठा को खाता है, उसी प्रकार पशु (के समान अज्ञानी शिष्य) शील (सदाचार) को भी छोड़कर, दुराचार में रमण करता है। अध्ययन-१
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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