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२४. “तत्त्वज्ञानी, पूर्णतया शान्त, विद्या व चारित्र (इन दोनों) से सम्पन्न, सत्यवादी, सत्व-पराक्रमी ज्ञातृवंशीय (भगवान् महावीर) ने (उक्त कुत्सित एकान्तवादों के सम्बन्ध में) ऐसा बताया था। ”
२५. “जो (उक्त असत्प्ररूणा करने वाले एकान्तवाद के अनुयायी) * लोग पाप करते हैं, वे घोर नरक में गिरते हैं, (किन्तु) आर्य धर्म (जिन-धर्म) का आचरण कर लोग दिव्य गति प्राप्त करते हैं । ”
२६. “(उक्त एकान्तवादियों का) यह (कथन) तो माया (कपट) से पूर्ण कथन है, मिथ्यावचन एवं निरर्थक है । (इसलिए) मैं (उनका उस रूप में) त्याग करता हुआ ही (संयम मार्ग में) रहता हूँ और चलता हूँ।”
२७. “ (जो कोई भी) मिथ्यादृष्टि व अनार्य हैं, वे सब मेरे जाने हुए हैं । परलोक के सद्भाव (रूपी सत्य के आलोक में मैं अपनी आत्मा के अस्तित्व को भी अच्छी तरह जानता हूँ (या परलोक में रही हुई अपनी आत्मा की अतीत-कालीन स्थितियों को भली प्रकार जानता हूँ) । ”
२८. “मैं (पहले) 'महाप्राण' (नामक पांचवें ब्रह्मलोक-विमान) में 'सौ वर्ष की आयु' के समान (देवलोक अनुरूप पूर्ण) आयु वाला (एक) कान्तिमान् (देव) था। (वहां) मनुष्यों के 'सौ वर्षों' के समान (वैमानिक देवों की पूर्ण) जो दिव्य आयु होती है, वह ‘पाली' व ‘महापाली' (पल्योपम व सागरोपम प्रमाण वाली हुआ करती) है।”
२६. “(उक्त) ब्रह्मलोक (के दस सागरोपम की आयु पूर्ण कर, वहां) से च्युत होकर, मैं मनुष्य-भव में आया हूँ। मैं जैसे अपनी आयु (व गति) के बारे में जानता हूँ, वैसे ही दूसरों की (आयु व गति के बारे में) भी (जानता हूँ) । ”
अध्ययन- १८
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