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________________ LESO १८. उन अनगार (गर्दभाली मुनि) के पास (श्रुत-चारित्र रूप) धर्म को सुनकर, वह राजा उत्कृष्ट संवेग (मोक्ष-अभिलाषा) तथा निर्वेद (वैराग्य) को प्राप्त हुआ। १६. (वह) संजय राजा (अपना सब) राज-पाट छोड़ कर, भगवान् 'गर्दभालि' मुनि के पास जिन-शासन में दीक्षित होने के लिए निकल पड़ा। (अर्थात् प्रव्रज्या ग्रहण कर ली) {दीक्षा लेने के अनन्तर, गुरु-आज्ञा से एकाकी विहार करते हुए संजय राजर्षि की, अप्रतिबद्धविहारी 'क्षत्रिय मुनि' से भेंट हुई। तदुपरान्त उनके मध्य हुई वार्ता२०. राष्ट्र को छोड़ कर प्रव्रजित होने वाले (किसी अन्य) क्षत्रिय (मुनि) ने (संजय राजर्षि से) कहा- “(हे मुने!) जिस प्रकार आपका यह (बाह्य) रूप प्रसन्न (निर्विकार) दृष्टिगोचर हो रहा है, क्या वैसा ही आपका अन्तर्मन भी (प्रसन्न व निर्विकार) है?" २१. (क्षत्रिय मुनि का कथन-) “(हे मुने!) आपका नाम क्या है? गोत्र क्या है? किस उद्देश्य से आप 'माहन' (सर्वपापों से विरत मुनि) बने हैं? आप बुद्धों- आचार्य व गुरुजनों- की किस प्रकार सेवा करते हैं? (और) किस रीति से आप ‘विनीत' कहलाते हैं?" २२. (संजय राजर्षि का कथन-) “मेरा नाम संजय है। गोत्र से मैं गौतम हूँ। विद्या (श्रुत-ज्ञान) व चारित्र (दोनों) में पारंगत 'गर्दभाली' मेरे आचार्य हैं।" २३. “हे महामुने! (कुछ तथाकथित) तत्त्वज्ञानी (जो) क्रिया, अक्रिया, विनय व अज्ञान - इन चारों प्रकारों से (अर्थात् क्रियावादी, अक्रियावादी, विनयवादी व अज्ञानवादी - इन चार वर्गों में विभाजित चार स्वरूपों में) कुत्सित भाषण (अयुक्तियुक्त प्ररूपणा) किया करते हैं।" अध्ययन-१८ ३१७
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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