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________________ १२. “जब सब (कुछ) छोड़ कर (एक दिन) विवश होकर (इस संसार से) तुझे जाना (ही) है, (तब फिर) इस अनित्य प्राणि-लोक में तू राज्य (के नश्वर भोग) में क्यों आसक्त हो रहा है?" १३. “हे राजन्! जिस पर तुम मोहित हो रहे हो (वह) जीवन और रूप, बिजली की चमक की तरह चंचल है। परलोक के हित का तुझे बोध (क्यों) नहीं है?" १४. “(हे राजन्!) स्त्री, पुत्र, मित्र, बन्धु-बान्धव (ये सब) जीवित (व्यक्ति) के (धन-वैभव आदि पर आश्रित होकर उसके) साथ (तो) जीवन-यापन करते हैं, (किन्तु ये) मृत व्यक्ति का कभी अनुसरण नहीं करते ।” १५. “अत्यन्त दुःखी होकर, पुत्र (भी) अपने मृत पिता को (घर से बाहर निकाल देते हैं, इसी तरह पिता भी (मृत) पुत्रों को तथा (बन्धु-जन) बान्धवों को (घर से बाहर निकाल देते हैं)। (इसलिए) हे राजन! तप (संयम) का आचरण करो।" १६. “हे राजन्! (मृत्यु के बाद) उस (मृत व्यक्ति) द्वारा उपार्जित द्रव्य - धन के साथ, तथा (अब तक) सुरक्षित रह चुकी (उसकी) पत्नियों के साथ दूसरे लोग प्रसन्न, सन्तुष्ट और (वस्त्र-आभूषणों से) अलंकृत होकर क्रीड़ा करने लगते हैं- उपभोग कर आनन्द मनाने लगते हैं।” १७. “उस (मृत व्यक्ति) द्वारा जो (कुछ) भी सुखद ब दुःखद कर्म किया गया है, उस कर्म से युक्त होकर (ही वह मृत व्यक्ति) पर-भव में जाता है।" अध्ययन-१८ ३१५
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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