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________________ ६. उसके बाद, (वह) अश्वारूढ़ राजा शीघ्र ही वहां आया। वहां उसने मारे गए मृगों को देखा, और फिर (उक्त) अनगार (मुनि) को देखा। ७. इसके बाद (तो) राजा वहां भयभीत हो गया, (और सोचने लगा कि) रस-लोलुप व हिंसा-परायण बने हुए मुझ पुण्यहीन ने (मृगों को ही नहीं, अपितु) अनगार (साधु) के मन को (भी) व्यर्थ ही आहत कर दिया। ८. उस राजा ने (अपने) घोड़े को (तो) छोड़ दिया, और (पैदल ही चलकर) अनगार (मुनि) के चरणों में विनय-पूर्वक वन्दना की (और कहा कि) “भगवन्! इस (अपराध) के लिए मुझे क्षमा करें।" तब, (चूंकि) वे अनगार भगवन् मौन-पूर्वक ध्यान में निमग्न थे, (इसलिए उन्होंने राजा को प्रत्युत्तर नहीं दिया, तब राजा (और भी अधिक) भय-त्रस्त हो गया। १०. (राजा ने कहा-) “हे भगवन्! में संजय (राजा) हूँ। मुझसे आप बात (तो) करें। (क्योंकि) क्रुद्ध मुनि अपने तेज से करोड़ों लोगों को भस्म कर सकते हैं।" ११. (मुनि ने कहा-) “हे राजन्! तुझे अभय है, और तू भी (औरों के लिए) अभयदाता बन । (इस) अनित्य प्राणि-लोक में तू हिंसा में क्यों आसक्त हो रहा है?" अध्ययन-१८ ३१३
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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