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________________ 卐 ११. अत्यधिक मायावी, अत्यधिक वाचाल, अहंकारी, लालची, इन्द्रिय आदि पर नियन्त्रण न रख पाने वाला, आहार का (साधर्मी साधुओं में) सम-विभाग (आहार आदि का उचित बँटवारा) न करने वाला, तथा (गुरु व साधर्मी साधुओं के प्रति) प्रेम-भाव न रखने वाला ‘पाप-श्रमण' कहलाता है। १२. (जो साधु) विवाद को (पुनः) उभारता है, अधर्म में आत्मीय बुद्धि को (एवं दूसरों की बुद्धि को) नष्ट करने वाला, तथा मिथ्या आग्रह, लड़ाई-झगड़े व कलह में अनुरक्त रहने वाला होता है, (वह) 'पाप-श्रमण' कहलाता है। १३. (जो साधु) स्थिर होकर नहीं बैठने वाला, तथा भांडों-विदूषकों जैसी (विकार-युक्त) चेष्टा करने वाला होता है, सचित्त-अचित्त का विचार किये बिना ही जहां-तहां बैठ जाता है, और जो (आसन पर) बैठने में (शास्त्रीय विधि के अनुरूप) सावधानी (या विवेक) नहीं रखता है, (वह) 'पापश्रमण' कहलाता है। १४. (जो साधु) धूल से भरे पैरों से (ही) सो जाता है, शय्या का प्रतिलेखन नहीं करता, और (जो) बिछौना बिछाने में (भी) (शास्त्रीय विधि के अनुरूप) सावधानी (या विवेक) नहीं रखता है, (वह) 'पाप-श्रमण' कहलाता है। १५. (जो साधु) दूध-दही (आदि) विकृतियों को बार-बार खाता है, तथा तपश्चर्या में रुचि (या प्रेम) नहीं रखता, (वह) 'पाप-श्रमण' कहलाता है। १६. (जो साधु) सूर्य के उदय होने से लेकर अस्त होने तक, बार-बार खाता रहता है, जो शिक्षा देने पर (उलटे शिक्षक को ही) शिक्षा देने लगता है, (वह) 'पाप-श्रमण' कहलाता है। अध्ययन-१७ ३०३
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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