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________________ (जो) आचार्य व उपाध्याय को (सेवा आदि के कार्यों से) अच्छी तरह परितृप्त-सन्तुष्ट नहीं करता, (या उनके सेवा आदि के कामों में अच्छी तरह चिन्तातुर नहीं रहता, अपितु) सत्कार-पूजा का भाव भी नहीं रखता, (वह) ढीठ/ अभिमानी (साधु) 'पापश्रमण' कहलाता है। ६. (जो साधू द्वीन्द्रिय आदि) जीवों का तथा बीज व हरी (वनस्पति) का संमर्दन (पांव तले या अंग-प्रत्यंगों से मसलने/कुचलने का काम) करने वाला, तथा असंयमी होते हुए भी स्वयं को संयमी मानने वाला होता है, वह) 'पापश्रमण' कहलाता है। ७. (जो साधु) संस्तारक (बिछौना), फलक (पट्टा), पीठ (चौकी व अन्य आसन), निषया (स्वाध्याय-स्थल) तथा पाद-कम्बल (पैर पोंछने के वस्त्र) को बिना प्रमार्जित किए हुए, उन पर बैठ जाने वाला (या उपयोग में लाने वाला होता है, वह) 'पापश्रमण' कहलाता है। ८. (जो साधु) जल्दी-जल्दी चलता है, बार-बार (साधना में) प्रमाद करता है, (मर्यादाओं का) उल्लंघन करने वाला (या बालकों आदि को लांघ कर चलने वाला), तथा अतिक्रोधी स्वभाव वाला (होता है, वह) 'पाप-श्रमण' कहलाता है। ६. (जो साधु) प्रमादयुक्त (असावधान) होकर 'प्रतिलेखना' करता है, ‘पाद-कम्बल' को जहां-तहां छोड़ देता है। (अथवा पात्र एवं कम्बल व धर्मोपकरणों की) प्रतिलेखना में दत्तचित्त/सावधान नहीं रहता (वह) 'पापश्रमण' कहलाता है। १०. (जो साधु इधर-उधर की) कुछ-भी (बातों को) सुनता हुआ, (उन्हीं बातों को सुनने में दत्तचित्त होने से) प्रमादपूर्वक प्रतिलेखना करने लगता है, और गुरुजनों की नित्य अवहेलना या तिरस्कार (भी) करता है, (वह) 'पापश्रमण' कहलाता है। अध्ययन-१७ ३०१
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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