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व्यावहारिक धरातल पर भी लाभान्वित होता है। वह धर्माचरण में तत्पर अन्य साधर्मिकों के लिये भी एक आदर्श आधार या आश्रय बन जाता है। उक्त सभी दृष्टियों से 'विनय' को शिक्षा का फल तथा सर्व कल्याणों का मूल हेतु कहा जाता है।
प्रस्तुत प्रथम अध्ययन में 'विनय' से सम्बन्धित समग्र अपेक्षित अंगों का सारगर्भित व प्रभावपूर्ण निरूपण किया गया है। भिक्षाजीवी श्रमण अनगार के लिये ज्ञातव्य विनय तथा अविनय का व्यावहारिक स्वरूप, विनय का लाभ, अविनय का दुष्फल, गुरुजनों के प्रति करणीय शिष्टाचार व अकरणीय अशिष्टाचार, भिक्षा-ग्रहण, आहार-सेवन व भाषणादि सामान्य चर्याओं में अपेक्षित विवेक, विद्या-प्राप्ति में बाधक तत्व-इत्यादि विषयों पर यहां यथोचित प्रकाश डाला गया है।
बताया गया है कि विनय आत्म-कल्याण का आधार है। इस से साधक का ज्ञान भी विकसित होता है और चारित्र भी निर्मल होता है। द्वन्द्व-रहित आह्लादपूर्ण जीवन का यह स्रोत है। इस से ऋजुता और गुण-सम्पदा जैसी वास्तविक उपलब्धियां प्राप्त होती हैं। व्यक्तिगत स्वार्थों का अन्धकार छंटता है। वास्तविक उपलब्धियों से सम्पन्न जीवन, चाहे वह किसी का भी हो, की अनुमोदना करने के लिये सहदयता से परिपूर्ण क्षमता मिलती है। विनयशील शिष्य अपने जीवन को गुरु के संकेतों की व्याख्या बनाते हुए जिनेन्द्र-प्ररूपित धर्म का साकार रूप हो जाता है। स्व-पर-कल्याण की सामर्थ्य अर्जित कर लेता है।
लौकिक और लोकोत्तर, ये विनय के दो भेद हैं। लौकिक विनय है-अर्थविनय, काम विनय, भय विनय, लोकोपचार-विनय। लोकोत्तर विनय को मोक्ष विनय भी कहा गया है। दर्शन विनय, ज्ञान विनय, चरित्र विनय, तप विनय
और उपचार विनय, ये मोक्ष विनय के प्रकार हैं। इसी प्रकार-मन-विनय, वचन-विनय, काय-विनय आदि 'विनय' के अनेक भेद-प्रभेद आगमों में प्रतिपादित किये गये हैं। साधक के अंतर्बाह्य जगत् को आलोकित करने वाले इस व्यापक एवम् आधारभूत धर्म का स्वरूप अनेक दृष्टियों से उद्घाटित करने के कारण प्रस्तुत अध्ययन की स्वाध्याय मंगलमय है।
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अध्ययन-१