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अध्ययन परिचय
अड़तालीस गाथाओं से निर्मित प्रस्तुत अध्ययन का केन्द्रीय विषय है-विनय। इसीलिये इसका नाम 'विनय श्रुत' रखा गया। जैन साधना-पद्धति में 'विनय' को विशिष्ट स्थान प्राप्त है। मोक्ष का प्रधान कारण सम्यक् चारित्र बतलाया गया है। यह सम्यक् चारित्र सम्यक् ज्ञान के अभाव में सम्भव नहीं होता। ज्ञान की प्राप्ति विनय-पूर्ण व्यवहार से ही शिष्य को सम्भव हो पाती है। इसलिये विनय-धर्म का महत्त्व स्वतः सिद्ध है।
वास्तव में मोक्ष के साधक को संवर व निर्जरा-इन दो चक्रों वाले चारित्र-रूपी रथ पर आरूढ़ होकर अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ना होता है। संवर व निर्जरा का प्रमुख साधन तप को माना गया है। 'विनय' आभ्यन्तर तप का एक रूप है। क्लेशप्रद सकल कर्मों का विनय अर्थात् उन्मूलन करने वाला होने से ज्ञानार्थी शिष्य का अनुशासित तपोमय आचरण 'विनय' नाम से अभिहित होता है।
_ 'विनय' वस्तुतः अहम्-भाव के विसर्जन की विशिष्ट साधना है। यह एक 'सूत्र' या धागा है, जो ज्ञानार्थी शिष्य और ज्ञान-प्रदाता गुरु-इन दोनों के मन को एकसूत्रता में जोड़ता है। यह एक आचार संहिता है, जो ज्ञानार्थी शिष्य के कर्त्तव्य व व्यवहार-सम्बन्धी विधि-निषेधों को रेखांकित करती है। संक्षेप में, यह आध्यात्मिक जीवन-यात्रा की प्रथम सीढ़ी है, जिसे आधार-रूप में अपनाये बिना उन्नति संभव नहीं।
विनय 'मानसिक दासता' नहीं, अपितु जीवन में निर्द्वन्द्वता, निरभिमानता, निश्छलता व सरलता आदि सद्गुणों की अभिव्यंजना है। 'विनय-धर्म' के माध्यम से शिष्य एक तरफ बाह्य रूप में अपनी आज्ञाकारिता, सेवा-वृत्ति, विनम्रता, कालोचित स्वाध्यायशीलता आदि से गुरुजनों की निकटता, अनुकूलता व प्रियपात्रता प्राप्त करता है, तो दूसरी तरफ वह अपनी सरल, निश्छल व अनुशासित मनोवृत्ति से स्वयं ज्ञान-प्राप्ति के अनुकूल आन्तरिक स्थिति का निर्माण करता है। वह विद्यार्जन में बाधक 'स्त्री-संपर्क' आदि कार्यों से सदैव स्वयं को दूर रखता है। साथ ही विद्या-प्राप्ति में साधक गुरु-प्रसन्नता हेतु विविध प्रकार से प्रयत्नशील रहता है।
विनय-सम्पन्न व्यक्ति लोकव्यापी यशस्विता, गुरुजनों व ज्ञान की प्रिय पात्रता एवम् लोक-पूज्यता आदि महनीय उपलब्धियों का स्वामी होता हुआ
उत्तराध्ययन सूत्र