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देने के कारण पाप-श्रमण होते हैं। स्पष्ट है कि अपने पापों की आलोचना वे नहीं करते। अपने पापों को निष्फल नहीं बनाते। इसके विपरीत वे पापों को प्रश्रय देते हैं। 'पाप-श्रमण' का एक अर्थ पापों के लिये श्रम करने वाला भी है।
श्रमण-धर्म के सम्यक् स्वरूप में उसकी आस्था कम या समाप्त हो जाती है। आस्था से उत्पन्न होने वाला उत्साह भी उस में नहीं रहता। आस्था व उत्साह की कमी या अभाव से उसके ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तप-आचार व वीर्याचार-इन पांच आचारों में प्रमाद होना आरम्भ हो जाता है। इनके स्थान पर उसे निन्दा में रस आने लगता है। अहंकार-प्रदर्शन में आनन्द अनुभव होने लगता है। अविनय में उसका मन रमने लगता है। प्रतिलेखना व पांचों समितियां उसे रूढ़ियां लगने लगती हैं। कुटिलता से काम निकालना उसके लिये सहज हो जाता है। सुख-सुविधा के साधन उसे ललचाने लगते हैं। गण और संघ में विवाद का केन्द्र बनने से उसका क्षुद्र अहम् सन्तुष्ट होने लगता है। साधन-संग्रह के लिये वह गृहस्थों के काम निकालने में सहायक बनने लगता है। उन्हें शुभाशुभ फल बताने लगता है। स्वार्थ-पूर्ति के लिये अपनी जाति व अपने सांसारिक-सम्बन्धों का इस्तेमाल करने में उसे कोई संकोच नहीं होता।
सबसे बड़ी बात यह कि श्रमण-धर्म-निषिद्ध आचरण वह इस भाव से करता है मानो वही उसका कर्त्तव्य हो। मानो उसी का उपदेश प्रभु ने दिया हो। मानो वही मोक्ष का मार्ग हो। उसके शिथिलाचार की कभी चर्चा होती भी है तो अन्य शिथिलाचारियों के उदाहरणों का वह अपने पक्ष में कुशलतापूर्वक प्रयोग करता है। तरह-तरह के तर्क वह अपने शिथिलाचार को औचित्य का आधार देने के लिये गढ़ लेता है।
ऐसे तथाकथित श्रमण को भगवान् महावीर ने पाप-श्रमण कहा। निकृष्ट कहा। विष की तरह निन्दनीय कहा। अपना लोक-परलोक नष्ट करने वाला कहा। किसी को भी ऐसा श्रमण न बनने के लिये प्रेरित किया। प्रत्येक श्रमण को अपने आचार का समय-समय पर निर्मम मूल्यांकन करने का निर्देश दिया। अपने दोष दूर करने और सुव्रती होने का महत्व बतलाया।
श्रमण-दोषों के प्रति सजग करने के साथ-साथ सच्चे श्रमण का स्वरूप उद्घाटित करने के कारण भी प्रस्तुत अध्ययन की स्वाध्याय मंगलमय है।
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अध्ययन-१७
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