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________________ अध्ययन परिचय इस अध्ययन में इक्कीस गाथायें हैं। इस का केन्द्रीय विषय है-श्रमण-जीवन में प्रमाद से उत्पन्न होने वाले पाप का वर्जन। इसीलिये इसका नाम 'पाप-श्रमणीय' रखा गया। आत्मा को निर्मलतम स्वरूप तक पहुंचाने के लिये श्रम करने वाला वास्तव में श्रमण होता है। इस श्रम से विरत हो जाने वाला पाप-श्रमण कहलाता है। सम्यक् श्रम से विरत होना प्रमाद है। प्रमाद अपने आप में पाप है। ऐसा पाप जो अनेक पापों का जनक है। प्रमाद-ग्रस्त श्रमण सच्चे अर्थ में श्रमण नहीं होता। उसका जीवन श्रमण-धर्म का प्रदर्शन-मात्र रह जाता है। इसी को पाखण्ड कहते हैं। मात्र मुनि-वेश धारण कर लेने से कोई श्रमण नहीं हो जाता। वस्तुतः श्रेष्ठ श्रमण तो वह है जो संघस्थ-साधु या गृहस्थ के प्रति व्यवहार-विवेक के साथ कर्त्तव्य व उत्तरदायित्व का निर्वाह करते हुए तथा प्रमाद व कषाय पर विजय-प्राप्ति की ओर अग्रसर होते हुए अनासक्ति, समत्व, त्याग, तप व संयम से परिपूर्ण मुनि-चर्या में दृढ़ आस्था के साथ निरत रहता है। प्रव्रज्या ग्रहण करने के समय जिन साधकों को दुष्कर श्रमण-चर्या के प्रति पूर्ण आस्था व उत्साह रहता है, उनमें से सभी ऐसे नहीं होते जो अपनी आस्था व उत्साह को अनवरत रूप से स्थिर बनाये रखते हैं या अधिक संवृद्ध बनाते हैं। कुछ ऐसे भी होते हैं जिनमें संयम के प्रति अरति-भाव उत्पन्न हो जाता है। श्रमण-आचार उनके लिये एक रूढ़िमात्र बन कर रह जाता है। बेमन से उस रूढ़ि को ढोते रहने के कारण वे अनेक या सभी संदर्भो में शिथिलाचारी हो जाते हैं। मुनि-वेश धारण करने वालों में कुछ ऐसे भी होते हैं जो परीषहों की धूप में चलते-चलते क्लांत हो जाते हैं। सुविधा-वृक्ष का आश्रय ले लेते हैं। प्रमाद की नींद सो जाते हैं। कुछ ऐसे भी होते हैं, जो सिद्धांततः कषायों को शत्रु मानते हुए व्यवहार में उनके मित्र बने रहते हैं। पांच महाव्रतों को खण्डित करते रहते हैं। कुछ ऐसे भी होते हैं, जो इन्द्रिय-सुखों के जाल में फंस जाते हैं। साधना-लीनता से दूर करने वाली साधन-आसक्ति जिनके जीवन का सत्य हो जाती है। कुछ ऐसे भी होते हैं, जिन्हें मनमानी करना ही संयम का आदर्श प्रतीत होता है। न अनुशासन का उनके लिये कोई अर्थ रहता है, न विनय का और न ही धर्म-संघ-मर्यादा का। ये सभी पापों को प्रश्रय २६६ उत्तराध्ययन सूत्र
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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