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१०. (ब्रह्मचर्य में निरत भिक्षु मनोज्ञ) शब्द, रूप, रस, गन्ध तथा
स्पर्श-इन पांच प्रकार के काम-गुणों का सदा परित्याग करे ।
११. (१) स्त्री-जनों से आकीर्ण (उनके अधिक आवागमन से युक्त)
स्थान । (२) मनोरम स्त्री-कथा । (३) स्त्रियों के साथ अधिक परिचय। (४) उन (स्त्रियों) की इन्द्रियों (व अंगों) का (रागवश) अवलोकन।
१२. (५) (उन स्त्रियों के) कूजन, रोदन, गायन, हास्य (के शब्दों का
श्रवण)। (६) (पूर्व-)भुक्त भोगों व सहवास (का अनुस्मरण)। (७) 'प्रणीत' भोजन-पान । (८) (मर्यादित) मात्रा से अधिक भोजन-पान ।
१३. (६) शरीर को सजाने-संवारने की अभिलाषा, और (१०) दुर्जय
काम-भोग-ये (दश कार्य) आत्म-गवेषी व्यक्ति के लिए 'तालपुट' विष की तरह (संयम-घातक) हैं ।
१४. (इसलिए) स्थिरचित्त वाला (भिक्षु इन) दुर्जय काम-भोगों का
सदैव परित्याग करे, और सभी (संयम-घात की सम्भावना वाले) शंका-स्थानों से दूर रहे।
१५. (इस प्रकार) ब्रह्मचर्य में सुसमाहित तथा 'दान्त' (कषायों व
इन्द्रियों का दमन करने वाला) भिक्षु धर्मरूपी उद्यान में अनुरक्त होता हुआ (या धर्म-रति-युक्त साधुओं में प्रीति-भाव रखता हुआ) धैर्ययुक्त ‘धर्म-सारथी' के रूप में धर्म रूपी उद्यान में विचरण करे।
अध्ययन-१६
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