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४. ब्रह्मचर्य में निरत रहने वाला (भिक्षु) स्त्रियों के अंग-प्रत्यंग,
आकार तथा उनके बोलने की मनोहर मुद्रा एवं (मनोहर) चितवन/कटाक्ष को (रागादि-वश) दृष्टिग्राह्य करने (देखने) का परित्याग करे।
ब्रह्मचर्य में निरत रहने वाला (भिक्षु) स्त्रियों के कूजन, रोदन, गीत, हास्य, स्तनित-गर्जना एवं विलाप (के शब्दों) को श्रवण-ग्राह्य बनाने (अर्थात् सुनने) का परित्याग करे ।
ब्रह्मचर्य में निरत रहने वाला (भिक्षु) स्त्रियों के (साथ, दीक्षा के पूर्व काल में किए गये) हास्य, क्रीड़ा, रति, मान (रूटना) और आकस्मिक त्रास पैदा करने वाली (मूर्छा आदि) अवस्थाओं का कभी भी अनुचिन्तन/स्मरण न करे ।
७. ब्रह्मचर्य में निरत भिक्षु काम-वासना के शीघ्र उत्तेजक ‘प्रणीत'
(अतिस्निग्ध व पौष्टिक) आहार-पानी का नित्य ही त्याग करे ।
८. ब्रह्मचर्य में निरत (भिक्षु) चित्त की स्वस्थता/स्थिरता को (बनाये
रखने के लिए) रखता हुआ (मात्र संयम-) यात्रा के (निर्वाह) हेतु, उचित समय में, धर्म-लब्ध (आगमोक्त मर्यादा के अनुरूप प्राप्त होने वाले, निर्दोष एवं धर्म-साधन-उपयोगी) एवं परिमित (मात्रा वाले आहार का) भोजन करे, किन्तु (मर्यादित) मात्रा से अधिक
(कभी) नहीं (खाए)। ६. ब्रह्मचर्य में निरत भिक्षु 'विभूषा' (शरीर को सजाने-संवारने की
मनोवृत्ति) का परित्याग करे, और शृंगार के निमित्त से शरीर के मण्डन (नख, केश, होंठ, मुख आदि को संस्कारित व अलंकृत करने वाले साधनों) को धारण न करे ।
अध्ययन-१६
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