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________________ ऐसा क्यों? (उक्त प्रश्न के उत्तर में) आचार्य ने कहा-(मनोज्ञ) शब्द, रूप, रस, गन्ध व स्पर्श के प्रति आसक्त/लुब्ध होने वाले ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ के ब्रह्मचर्य के विषय में (स्वयं को व दूसरों को) शंका हो (सकती है, या फिर कांक्षा या विचिकित्सा पैदा हो (सकती है, अथवा (ब्रह्मचर्य का) नाश हो (सकता है, या उन्माद (रोग) को (भी) प्राप्त कर (सकता है, अथवा दीर्घकालिक रोग व आतंक हो (सक)ता है, अथवा केवली (भगवान्) द्वारा उपदिष्ट 'धर्म' से भ्रष्ट हो (सकता है।, इसलिए (ऐसा कहा है कि) निर्ग्रन्थ (मनोज्ञ) शब्द, रूप, रस, गन्ध व स्पर्श के प्रति आसक्त/लुब्ध नहीं हो। यह ब्रह्मचर्य-समाधि का दसवां स्थान (प्रकार) है। यहां (इस प्रसंग में मननीय) कुछ श्लोक (भी) हैं। जैसेः१. (ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को चाहिए कि वह) ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए (उस) स्थान का सेवन करे जो 'विविक्त' (एकान्त), अनाकीर्ण (संयम-बाधक लोगों के अधिक आवागमन से रहित) तथा (विशेष रूप से) स्त्री-जनों से रहित हो। २. ब्रह्मचर्य में निरत रहने वाला भिक्षु काम-राग (विषयासक्ति) को बढ़ाने वाली तथा मानसिक-आह्लाद (विकार) पैदा करने वाली स्त्री-कथा का परित्याग करे । ३. ब्रह्मचर्य में निरत रहने वाला भिक्षु, स्त्रियों के साथ संसर्ग व परिचय का तथा पुनः-पुनः सम्भाषण करने का हमेशा त्याग करे। अध्ययन-१६ २८७
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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