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________________ से अधिक पान-भोजन ग्रहण करने वाले ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ के ब्रह्मचर्य के विषय में (स्वयं को व दूसरों को) शंका हो (सकती है, या फिर कांक्षा या विचिकित्सा पैदा हो (सकती है, अथवा (ब्रह्मचर्य का) नाश (भी) हो (सक)ता है, या उन्माद (रोग) को (भी) प्राप्त कर (सकता है, अथवा दीर्घकालिक रोग व आतंक हो (सकता है, अथवा केवली (भगवान्) द्वारा उपदिष्ट 'धर्म' से भ्रष्ट हो (सकता है, इसलिए (ऐसा कहा है कि) निर्ग्रन्थ (मर्यादित) मात्रा से अधिक पान व भोजन का ग्रहण/सेवन नहीं करे। १२. विभूषा - विवेक : (नौवाँ ब्रह्मचर्य-समाधि-स्थान-) (जो) 'विभूषा' (शरीर को सजाने व संवारने की क्रिया) के प्रति अभिरुचि' रखने वाला नहीं होता, वह 'निर्ग्रन्थ' है। ऐसा क्यों? (उक्त प्रश्न के समाधान में) आचार्य ने कहा-'विभूषा' की मनोवृत्ति वाला तथा विभूषा (शरीर को सजाने-संवारने की क्रिया) करने वाला (निर्ग्रन्थ) स्त्री-जनों द्वारा अभिलषित (चाहा जाने वाला) हो जाता है, फल-स्वरूप, स्त्री-जनों द्वारा अभिलषित उस (निर्ग्रन्थ) के ब्रह्मचर्य के विषय में (स्वयं को व दूसरों को) शंका हो (सकती है, या फिर कांक्षा या विचिकित्सा पैदा हो (सकती है, अथवा (ब्रह्मचर्य का) नाश हो (सक)ता है, या उन्माद (रोग) को (भी) प्राप्त कर (सकता है, या दीर्घकालिक रोग व आतंक हो (सकता है, अथवा केवली (भगवान्) द्वारा उपदिष्ट 'धर्म' से भ्रष्ट हो (सकता है, इसलिए (ऐसा कहा है कि) निर्ग्रन्थ 'विभूषा' की अभिरुचि वाला न बने। सूत्र-१३. (दसवां ब्रह्मचर्य-समाधि-स्थान) (जो मनोज्ञ) शब्द, रूप, रस, गन्ध व स्पर्श के प्रति आसक्त व लुब्ध नहीं होता है, वह 'निर्ग्रन्थ' है। अध्ययन-१६
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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