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________________ ३. जो मुनि कठोर (निन्दायुक्त) वचन, एवं मारपीट (आदि के कष्टों) को (स्वकृत कर्मों का फल रूप जानकर) 'धीर' (धैर्ययुक्त तथा किसी भी प्रकार के विकार से रहित) होते हुए, ‘प्रमुख' (या प्रशस्त संयम-रूप धर्म-कार्य) में विचरण करता है, नित्य ही आत्मा को (असंयम-स्थानों से) सुरक्षित रखता है, न तो (कष्ट में) व्यग्र मन वाला और न ही (सुख में) हर्षातिरेक से युक्त होता है और जो सब कुछ (परीषह आदि को समभाव से) सहन करने वाला होता है, वह (ही वास्तव में) 'भिक्षु' है। जो निस्सार/निकृष्ट शैया व आसन (एवं भोजन-वस्त्र आदि) का (भी समभाव से) सेवन करके, विविध सर्दी-गर्मी व डांस-मच्छर (आदि के परीषहों) के प्रति (भी) व्याकुलचित्त नहीं हुआ करता, और (इसी तरह, जो अनुकूल परिस्थितियों में अधिक) हर्षित भी नहीं होता, एवं सब कुछ (परीषह आदि) को (समभाव से) सहन करने वाला होता है, वह (ही वास्तव में) 'भिक्षु' है। जो तपस्वी न तो सत्कार की इच्छा करता है, और न ही (अपनी) पूजा व वन्दना तक की चाह रखता है, (वह) प्रशंसा की तो कैसे अपेक्षा रखेगा, और जो संयमी, सुव्रत-धारी होते हुए (रत्नत्रय से, आत्महित-साधक सदनुष्ठान से, तथा ज्ञान व क्रिया-इन दोनों से, एवं साधु-संघ से) जुड़ा हुआ रहता है, तथा जो (शुद्ध) आत्मा (या रत्नत्रय या मोक्ष) की गवेषणा में लगा होता है, वह (ही वास्तव में) 'भिक्षु' है। ६. जिसके साथ (रहने से संयमी) जीवन छूटता हो, अथवा सम्पूर्णतया (सर्वविध) मोहनीय (कर्म) का बन्ध हो जाता हो, उस नर या नारी (की संगति) का जो तपस्वी हमेशा त्याग करता है, तथा जो (विषयों में) 'कुतूहल' (नहीं भोगे हुए विषयों में अधिक उत्सुकता तथा पूर्वभुक्त विषयों की स्मृति-रूप चिन्तन-मनन की स्थिति) को नहीं प्राप्त करता, वह (ही वास्तव में) 'भिक्षु' है। अध्ययन-१५ २६१
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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