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४६. (तदनन्तर) विशाल राज्य को तथा कठिनता से छोड़े जा सकने
वाले काम-भोगों को छोड़कर (राजा इषुकार व रानी कमलावती) निर्विषय (भोगासक्ति में कारण होने वाले पदार्थों तथा वासना से रहित, तथा अपने राष्ट्र से दूर) निरामिष (काम-भोगों, आकांक्षाओं तथा धन-वैभव व देह की आसक्ति से रहित) (स्वजन आदि के संग रूप) स्नेह से रहित, तथा अपरिग्रही हो
गए। ५०. (श्रुत-चारित्र रूप) धर्म (के स्वरूप) का अच्छी तरह ज्ञान प्राप्त
कर, श्रेष्ठ काम-भोगों को (भी) छोड़कर (वे दोनों) यथाख्यात (जिनोपदिष्ट) घोर तपश्चरण को अंगीकार कर (संयम-मार्ग में) 'घोर पराक्रम' करने वाले' बने ।
५१. इस प्रकार, वे सभी (छहों मुमुक्षु आत्माएं) क्रमशः 'बुद्ध' (तत्वज्ञ)
धर्म (चारित्र) में परायण, जन्म-मृत्यु के भय से उद्विग्न एवं दुःख के अन्त (अर्थात् समूल विनाश वाले 'मोक्ष') की गवेषणा में लग गए।
५२. पूर्व (जन्म) में (अनित्य आदि) भावनाओं को भाने वाले वे सभी
(छहों भव्य आत्माएं) मोहरहित होकर, (जिन) शासन में थोड़े समय में ही दुःख का (समूल), अन्त पा गए।
५३. रानी (कमलावती) के साथ राजा (इषुकार), (भृगु) पुरोहित
ब्राह्मण, (उसकी पत्नी 'यशा' नाम की) ब्राह्मणी, और (उस ब्राह्मण के) दोनों पुत्र-वे सभी निर्वाण को प्राप्त हो गए। -ऐसा मैं कहता हूँ।
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भयंकर रोगादि से भी अप्रभावित, भयावह श्मशान आदि स्थानों में तथा अनशन आदि दृश्चर तपस्या में अचल व घोर तपस्वी जप तप व भोग को उत्तरोत्तर समृद्ध करते हुए, बढ़ते ही चले जाते हैं. वे 'घोर पराक्रमी' कहलाते हैं।
अध्ययन-१४
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