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३८. "हे राजन्! तुम ब्राह्मण द्वारा परित्यक्त धन को लेना चाह रहे
हो। (किन्तु) (जो) व्यक्ति वमन किये हुए का भक्षण करता है, वह प्रशंसनीय नहीं होता।"
३६. "यदि तुम्हें सम्पूर्ण संसार या उसका (सारा) धन भी प्राप्त हो
जाए, तो भी वह सब तुम्हारे लिए पर्याप्त नहीं होगा, और न ही वह तुम्हारी रक्षा ही कर सकेगा।"
४०. "हे राजन्! जब कभी (किसी दिन) मनोज्ञ काम-भोगों को (यहीं)
छोड़ कर मृत्यु को प्राप्त हो जाओगे, तब हे नरदेव! एक धर्म ही रक्षक होगा, उसके अतिरिक्त यहां कोई भी (रक्षक) नहीं
४१. “पिंजरे में (बन्द) पक्षिणी की तरह मैं सुख का अनुभव नहीं
कर पा रही हूँ, (अतः) में (भी स्नेह के) बन्धन को तोड़कर अकिंचन (अपरिग्रही), सरल (स्वभाव से युक्त, या मायादि शल्य से रहित), निरामिष (भोगासक्ति से दूर), तथा (परिग्रह व आरम्भ (हिंसा) रूप दोषों से मुक्त होती हुई मुनि-धर्म का आचरण करूंगी।"
"जिस प्रकार जंगल में लगी हुई दावाग्नि से झुलसते हुए जीव-जन्तुओं को देख कर राग-द्वेष के वशीभूत दूसरे (मूढ़) जीव प्रसन्न होते हैं।"
४३. “उसी प्रकार, काम-भोगों में आसक्त हो रहे हम मूढ़ जन (भी)
यह नहीं समझ पाते कि राग-द्वेष (कषाय रूपी) अग्नि द्वारा समूचा संसार (ही) जलता जा रहा है (और यह भी कि प्रमुदित
होने के स्थान पर स्वयं को बचाने का प्रयत्न किया जाये)।" अध्ययन-१४
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