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________________ ३३. (पुरोहित-पत्नी का कथन-) “(हे आर्य!) प्रतिस्रोत (जल-प्रवाह के प्रतिकूल) तैरने वाले बूढ़े हंस की तरह, तुम्हें अपने सहोदर भाई (स्वजन आदि) स्मरण में न आ जाएं (और तुम पश्चाताप या खेद करो), इसलिए मेरे साथ भोगों को भोगो। वास्तव में (यह) भिक्षाचर्या तथा (एक गांव से दूसरे गांव तक) विहार करते रहना दुःखप्रद ही है।" ३४. (पुरोहित का पत्नी को कथन-) “हे ब्राह्मणि! जिस प्रकार सर्प अपने शरीर की केंचुली को उतार कर मुक्त हो, चल देता है, उसी प्रकार ये (मेरे दोनों) पुत्र भोगों को छोड़ (कर जा) रहे हैं, तब मैं (ही) अकेला क्यों (रहूं? इनका क्यों) न अनुसरण करूं।" "जिस प्रकार रोहित मत्स्य कमजोर जाल को काट देता है (और बाहर निकल जाता है), उसी तरह संयम-धर्म के (गुरुतर) भार को ढोने में सक्षम स्वभाव वाले, उच्च तपस्वी व धीर (पुरुष) अवश्य ही काम-भोगों को छोड़ कर भिक्षा-चर्या (मुनि-वृत्ति) का आचरण करने लगते हैं (या उस ओर चल पड़ते हैं)।" ३६. (पुरोहित-पत्नी का कथन-) “जिस प्रकार क्रौंच पक्षी और हंस (बहेलियों द्वारा) फैलाये गये जालों को काट-कर (आकाश में बाधाओं को पार कर चले जाते हैं, (उसी प्रकार) मेरे (दोनों) पुत्र और पति (देव) (जब) जा रहे हैं, (तब) मैं (ही) अकेली क्यों (रहूं? इनका क्यों) न अनुसरण करूं?" (इस प्रकार, पुरोहित, उसकी पत्नी तथा उसके दोनों पुत्र मुनि-दीक्षा अंगीकार कर लेते हैं।) ३७. पुरोहित अपने (दो) पुत्रों तथा पत्नी के साथ, भोगों का परित्याग कर, प्रव्रजित हो रहे हैं-ऐसा सुनकर (उस पुरोहित के) कुटुम्ब की विपुल व उत्तम धन-सम्पत्ति के विषय में रानी (कमलावती) ने राजा को (जो उस संपत्ति को अपने अधिकार में करना चाहता था) बार-बार (समझाते हुए) कहा: अध्ययन-१४ २४७
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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