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२८. “(हे पिता जी!) हम (तो) आज ही राग (पारिवारिक स्नेह) को
दूर कर, तथा हमारी निज श्रद्धा के सामर्थ्य के अनुरूप (श्रमण) धर्म को स्वीकार करेंगे, जिसे अंगीकार कर हमारा पुनर्जन्म नहीं होगा। (हमारे लिए) कुछ भी (काम-भोग) अनागत (पूर्व-जन्मों
में अभुक्त) नहीं रहा है।" २६. (पुरोहित का अपनी पत्नी से कथन-) "हे वाशिष्ठी! जिसके पुत्र
ही चले जा रहे हों, उसका (घर में) निवास (उचित) नहीं। मेरे लिए भिक्षा-चर्या का समय (आ चुका) है। (क्योंकि) वृक्ष शाखाओं से (ही) समाधि (सुन्दरता व शोभा) को प्राप्त होता है, शाखाओं के छिन्न होने पर वही वृक्ष लूंट है।" "जिस प्रकार संसार में पंखों से हीन पक्षी, यूद्ध में सेवक (योद्धाओं) के बिना राजा, तथा जल-पोत पर 'सार' (व्यापार-योग्य माल) नष्ट हो गया हो, वह बनिया (दुःखी) होता है, वैसे ही पुत्रों के बिना मैं (असहाय व दुःखी हो रहा) हूँ।"
३१. (पुरोहित-पत्नी का कथन-) “श्रेष्ठ श्रृंगारिक विषय-रस से
परिपूर्ण (या प्रचुर आनन्द-दायक) ये काम-भोग (के साधन मनोज्ञ रूप-रसादि) आपके पास एकत्रित व सुसज्जित (उपलब्ध) हैं। इन कामभोगों को पहले हम पर्याप्त रूप से भोग लें, बाद में (वृद्धावस्था में जाकर) हम ‘प्रधान' (मोक्ष) के मार्ग पर प्रस्थान
करेंगे।" ३२. (पुरोहित का प्रत्युत्तर) “हे ब्राह्मणि! हमने विषय-रसों को भोग
लिया है, वय (यौवन) हमें छोड़ता जा रहा है। मैं (किसी असंयममय, या परलोक व जन्मान्तर में प्राप्य सुखमय) जीवन के लिए तो भोगों को नहीं छोड़ रहा हूँ। लाभ-अलाभ, सुख-दुःख को समदृष्टि से देखता हुआ (में भी) मुनि-धर्म का आचरण करूंगा।"
अध्ययन-१४
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