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६. (जाति-स्मरण के कारण) मनुष्य-जीवन-सम्बन्धी (काम-भोगों में)
तथा जो भी दिव्य (देव लोक-सम्बन्धी काम-भोग) हैं, उन काम-भोगों में वे अनासक्त हो गए। मोक्ष की आकांक्षा वाले तथा श्रद्धा (तत्व-रुचि) से सम्पन्न वे (दोनों कुमार अपने) पिता
के पास आकर यह कहने लगे७. “यह 'विहार' (मनुष्य-जीवन-रूप रति-स्थान) अस्थायी है, तथा
अनेक विध्नों से पूर्ण है, आयु भी लम्बी नहीं होती-इसे जान लिया है, इस कारण हमें घर में आनन्द नहीं मिल पा रहा है, (इसलिए) मुनि-धर्म का आचरण करेंगे, (इस विषय में हम) आपकी अनुमति चाहते हैं।"
८. तब, उस स्थिति में पिता ने उन (भावी) मुनियों के तप में बाधा
पैदा करने वाला यह वचन कहा- “(हे पुत्रो!) वेदज्ञानी (प्रायः) यह वचन कहा करते हैं, कि 'पुत्र-हीनों का (पर) लोक (सुधरता) नहीं है।"
६. “(इसलिए) वेद पढ़कर, ब्राह्मणों को भोजन खिला कर, स्त्रियों
के साथ भोगों को भोग कर, तथा उत्पन्न पुत्रों को घर (का भार) सौंप कर (वैदिक परम्परा में मान्य) अरण्यवासी प्रशस्त मुनि बन जाना।"
१०. (पुत्रों ने देखा कि पिता जी संभावित पुत्रवियोग की आशंका में)
शोक की उस आग से, जो आत्मीय/मानसिक रागादि का ईन्धन पाकर, मोहरूपी वायु से अधिकाधिक प्रज्वलित हो रही है-संतप्त व परितप्त हो रहे हैं, इसलिए वे (गृहस्थाश्रम में रहने के लिए)
अनेक प्रकार से व अधिकाधिक अनुनय-विनय कर रहे हैं। ११. (अपने) बेटों को धन-वैभव (आदि) का तथा काम-भोगों का यथाक्रम
(उचित क्रम से, एक के बाद एक) निमंत्रण दे रहे तथा क्रमशः (लगातार या बारबार) अनुनय-विनय करते जा रहे (अपने पिता)
पुरोहित को उन कुमारों ने सोच-विचार कर ये वाक्य (कहे:-) अध्ययन-१४
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