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________________ २७. (ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती का कथन-) “हे साधो! जिस प्रकार यहां मुझे तुम जो यह शिक्षा रूप कथन कर (काम-भोगों की दुःखप्रदता आदि को सिद्ध कर) रहे हो, उसे मैं भी समझ (तो) रहा हूँ। हे आर्य! (निश्चय ही) ये काम-भोग संग-कारक (आसक्ति में डालकर कर्मबन्धन कराने वाले) हैं, (किन्तु) जो हम जैसे लोगों के लिए (तो) दुर्जेय (ही) हैं।" २८. “हे चित्र! (तथ्य यह है कि) हस्तिनापुर में महान् ऋद्धिशाली चक्रवर्ती (सनत्कुमार) को देखकर, मैं काम-भोगों में आसक्त हो गया, और मैंने अशुभ 'निदान' (विषय-सुख की इच्छा से चक्रवर्ती बनने का आर्तध्यान रूप संकल्प) कर लिया था।" २६. “(मृत्यु के समय) मैंने उस (निदान) का प्रतिक्रमण (आलोचना, निन्दा, गर्हा व प्रायश्चित) नहीं किया, (अतः) यह ऐसा फल (प्राप्त हो रहा) है जो मैं धर्म को जानता-समझता हुआ भी काम-भोगों में (ही) आसक्त हो रहा हूँ (उन्हें छोड़ नहीं पा रहा हूँ)।" ३०. “जिस प्रकार दलदल में फंसा हुआ हाथी स्थल (सूखी भूमि) को (अपने सामने) देखता हुआ भी किनारे तक पहुंच नहीं पाता, उसी प्रकार काम-भोगों में आसक्त बने हुए हम (लोग) भिक्षु (श्रमण) के मार्ग (धर्म) का अनुसरण नहीं कर पाते हैं।" E- HOME ३१. (मुनि द्वारा चक्रवर्ती को पुनः सम्बोधन) (“हे राजन्!) समय बीतता जा रहा है,रातें शीघ्रता से भागी जा रही हैं, मनुष्यों के काम-भोग भी नित्य नहीं (रह पाते) हैं। भोग एक बार प्राप्त होकर (उसी प्रकार) मनुष्य को (उसके पुण्य क्षीण होने पर) छोड़ देते हैं, जैसे पक्षी फलहीन वृक्ष को (छोड़ देते हैं)।" अध्ययन-१३ २२७
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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