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२१. “हे राजन्! (जो) इस अस्थायी (मानव-) जीवन में अत्यधिक
पुण्य-कर्म (शुभ अनुष्ठान) नहीं करता, तो वह मृत्यु के मुख में जाते हुए (शोक करता है, और साथ ही) धर्म न करने के कारण परलोक में (भी) शोक करता है।"
२२. “जिस प्रकार, यहां सिंह मृग को पकड़ कर (ले जाता है, वैसे
ही) अन्त-काल में मृत्यु (भी) मनुष्य को ले ही जाती है। (उस) समय में, माता, पिता, और भाई उसके (दुःख में) हिस्सेदार (सहभागी) नहीं हो पाते।"
२३. “न तो जाति के लोग, न ही मित्र-वर्ग, न ही पुत्र और न ही
बन्धु-बान्धव उसके दुःख को बांट पाते हैं। (वह) स्वयं अकेला (ही) दुःख को भोगता है। कर्म (अपने) कर्ता का ही अनुगमन किया करता है (अतः कर्म का फल कर्ता को ही भोगना होता
है, किसी अन्य को नहीं)।" २४. “(मृत्यु के समय) यह आत्मा पराधीन (विवश) होकर, द्विपद (पत्नी,
पुत्र, नौकर आदि), चतुष्पद (गाय, घोड़ा आदि पशु-धन), तथा खेत, घर व समस्त धन-धान्य को (यहीं) छोड़कर, मात्र (स्वकृत) कर्मों को साथ लिए हुए, (कर्मानुरूप) सुन्दर या असुन्दर (अर्थात् सुखद या दुःखप्रद) पर-लोक (अगले जन्म) को प्राप्त करता है।" “(मृत व्यक्ति के) उस एक मात्र तुच्छ शरीर को चिता पर ले जाकर, आग से जलाने के बाद, जाति के लोग, और पुत्र, तथा (यहां तक कि) भार्या भी किसी अन्य (आश्रय-) दाता का अनुसरण करने लगते हैं।"
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२६. "हे राजन्! मनुष्य के इस जीवन को (उसके अपने) कर्म, बिना
प्रमाद किये, (मृत्यु के) समीप ले जा रहे हैं। वृद्धावस्था (भी शारीरिक सुन्दर) वर्ण (रंग व कान्ति) को हर लेती है। हे पांचाल-राजा! (मेरी) बात सुनो, ‘महालय' (गुरुतर, घोर, प्रचुर महानिकृष्ट) कर्मों को मत करो।"
अध्ययन-१३
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