SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 253
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५. काम-भोगों में आसक्त हो रहे, किन्तु पूर्व (भव के) स्नेह से अनुराग करने वाले उस नराधिप (चक्रवर्ती) को, धर्म में स्थिर (चित्त वाले) 'चित्र' (मुनि) ने, उस (राजा) का हितैषी होकर, यह वचन उद्धृत किया १६. “सर्व गीत 'विलाप' (मात्र जैसे प्रतीत होते) हैं, समस्त नाट्य (व नृत्य) विडम्बना से भरे हुए (लगते) हैं। सभी आभूषण भार-रूप (प्रतीत) होते हैं, और (वस्तुतः) सभी काम-भोग दुःखोत्पादक (ही) हैं।" १७. “हे राजन्! अज्ञानियों को ही सुन्दर प्रतीत होने वाले (किन्तु वास्तव में) दुःखप्रद काम-भोगों में वह सुख नहीं है, जो (सुख) काम-भोगों की ओर से विरक्तचित्त वाले, तपोधनी एवं 'शील' (आदि) गुणों में रत (दत्तचित्त) रहने वाले भिक्षुओं को (प्राप्त होता) है।" १८. “हे नरेन्द्र! (पूर्व में) जन्म ले चुके हम दोनों की श्वपाक (चाण्डाल) जाति (थी, जो) मनुष्यों में (सब से) अधम जाति (कही जाती है, जहां हम चाण्डालों की बस्ती में, सभी उच्चजनों के द्वेष (व घृणा) के पात्र होकर रहा करते थे।" ME १६. “उस पापपूर्ण (अधम) जाति में जन्म लेकर, हम दोनों, चाण्डालों की बस्ती में, रहा करते थे, (तब) लोग हम से घृणा किया करते थे, (किन्तु) यहां (इस जन्म में) तो पूर्वकृत कर्म (हमारे लिए शुभफलदायक सिद्ध हो रहे) हैं।" २०. “हे राजन्! वही तू अब (इस जन्म में पूर्वकृत कर्मों के) पुण्य-फल से युक्त, महान् अनुभाग (अचिन्त्य शक्ति) वाला तथा महान् ऋद्धि सम्पन्न (चक्रवर्ती राजा बना) है। (इसलिए) (भावी प्रशस्त फल की प्राप्ति के उद्देश्य से) अस्थायी भोगों को छोड़ कर, 'आदान' (चारित्र धर्म की आराधना) के लिए अभिनिष्क्रमण कर (प्रव्रज्या स्वीकार कर)।" अध्ययन-१३ २२३
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy