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१०. (मुनि का कथन-) “मनुष्यों का समस्त आचरित (कर्म) सफल
होता है, (क्यों कि) किये हुए कर्मों से (बिना फल भोगे) छुटकारा नहीं होता। मेरी आत्मा भी श्रेष्ठ 'अर्थ' (उपलब्ध सांसारिक भोगयोग्य पदार्थों) एवं 'काम' (उपलब्ध शब्दादि विषय-भोगों) के
कारण, पुण्य-फल से सम्पन्न रही है।" ११. "हे सम्भूत! (जिस प्रकार, तुम स्वयं को) महान् अनुभाग
(अचिन्त्य शक्ति) से सम्पन्न, महान् ऋद्धि-शाली तथा पुण्य-फल से युक्त मानते हो, उसी प्रकार, हे राजन्! (मुझ) चित्र को भी समझो, उसके पास भी प्रभूत ऋद्धि व द्युति (प्रताप व तेजस्विता) रही है।"
१२. "(किन्तु मेरे मुनि बनने का कारण तो यह है कि मनुष्यों के
समूह के बीच, (एक बार स्थविरों ने) अल्पवचन (अक्षरों) वाली, किन्तु महान् (गम्भीर) अर्थ से युक्त स्वरूप वाली (एक) गाथा का गायन (उच्चारण, सुस्वर के साथ) किया था, जिसे शील (चारित्र) व श्रुत (ज्ञान) से सम्पन्न भिक्षु (ही) अर्जित (हृदयंगम कर तदनुरूप क्रियान्वित) किया करते हैं। (उसे हृदयंगम कर)
मैं “श्रमण' हो गया हूँ।" | १३. (ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती का कथन-) (“अरे भिक्षु! मेरे पास)
'उच्चोदय', 'मधु', 'कर्क', ('मध्य') व 'ब्रह्मा' (-ये पांच तरह के राज-महल) तथा अन्य भी (अनेक )रम्य आवास (मेरे पास हैं,) और 'पांचाल' जनपद भर में उपलब्ध सभी विशिष्ट वस्तुओं से परिपूर्ण, एवं विस्मयकारी प्रचुर धन-सम्पत्ति वाले इस घर का
तुम उपभोग करो।" १४. “हे भिक्षु! नाट्य (अथवा नृत्य), गीत व वाद्यों के साथ, रमणियों
से घिरे हुए तुम इन भोगों को भोगो । मुझे (तो बस यही) अच्छा लगता है। प्रव्रज्या (तो) निश्चय ही दुःखप्रद है।"
अध्ययन-१३
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