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बाद, गुरुदेव की कृपा से, मेरा अभ्यास छूटा नहीं। दूसरों को शास्त्र पढ़ाने का सौभाग्य भी मुझे प्राप्त होता रहा। आज सोचता हूं तो लगता है कि जिसे मूल पढ़ना भी कठिन लगता था, उस से इस शास्त्र का अनुवाद हो गया। इसका आधार गुरु महाराज के वही वचन हैं, 'अभ्यास कर। ये तो खूब चलेगा। "
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'उत्तराध्ययन सूत्र' के विषय में यदि मुझसे मेरी राय पूछी जाये तो मैं कहूंगा-यह एक पुस्तक मात्र नहीं है। यह तो अमृत का एक कलश है, जिसका स्वाध्याय द्वारा पान करने से अंतर व बाहर का रोम-रोम खिल उठता है। यह सूत्र मेरे जीवन की सांसें, मेरे हृदय की धड़कन और मेरी आंखों की ज्योति बन कर मेरे जीवन से जुड़ा है। इसके बिना मेरे लिये जीवन की कल्पना तक असम्भव है।
उत्तराध्ययन: प्रस्तुत प्रस्तुति
'उत्तराध्ययन' के जन्म से लेकर अब तक अनेक जिज्ञासु व मुमुक्षु मनीषी इसकी स्वाध्याय के माध्यम से भगवान् महावीर के निकट पहुंचते रहे हैं। ज्ञान के इस अप्रतिहत आलोक को अनुभव करते रहे हैं। इसके आधार पर नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य व टीकाओं की रचना समय-समय पर होती रही है। 'उत्तराध्ययन' के अनेक भाषाओं में अनेक अनुवाद वर्तमान में उपलब्ध हैं। न तो इसकी टीकाओं का कोई अभाव है और न ही इसके अनुवादों का। ऐसे में यह प्रश्न सहज ही है कि प्रस्तुत अनुवाद की क्या अपेक्षा बनी थी? प्रस्तुत प्रस्तुति को प्रस्तुत क्यों किया गया?
सहज रूप से इस संदर्भ में बिना किसी लाग-लपेट या भूमिका के मैं कहना चाहूंगा कि मैंने 'स्वान्तः सुखाय' ऐसा किया। यह मेरे मन का आनन्द है। इसे मैंने पाया। खूब पाया। प्रभूत मात्रा में अनुभव किया। यह आनन्द मेरे जीवन का एक सपना था। प्रस्तुत प्रस्तुति उसी सपने का प्रतिफल और साकार रूप है। इसके साथ एक अभिलाषा और भी थी। वह थी- 'उत्तराध्ययन सूत्र' का हरियाणवी अनुवाद। गुजराती, मराठी, पंजाबी आदि अन्य प्रादेशिक भाषाओं में इसके अनुवाद उपलब्ध थे परन्तु हरियाणवी में न तो इस शास्त्र का अनुवाद उपलब्ध था और न ही किसी अन्य शास्त्र का। हरियाणवी में भी 'उत्तराध्ययन'