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यूं तो प्रभु-वाणी का संकलन प्रत्येक शास्त्र सुमंगल है, कल्याण का हेतु है और सर्वाधिक सार्थक जीवन जीने की कला प्रदान करने वाला है परन्त सभी शास्त्रों का अभ्यास सभी व्यक्तियों के लिये होना कठिन है। यह 'उत्तराध्ययन सूत्र' एक ऐसा सूत्र है, जिसमें प्रभु वाणी का समस्त सार संग्रहीत है। तू ऐसे समझ जैसे घी-मक्खन-दही-छाछ, इन सब का स्रोत अकेला दूध है, ऐसे ही अकेला उत्तराध्ययन सम्यक् ज्ञान, दर्शन और चारित्र का आधार हो सकता है। संसार, मुक्ति, संयम, साधना, जीव, कर्म आदि अनेक विषयों का निरूपण इसमें हुआ है। इस एकमात्र शास्त्र की सम्यक् स्वाध्याय के आधार पर भी व्यक्ति अपना परम कल्याण कर सकता है। इतना महत्त्वपूर्ण है यह शास्त्र।"
मैंने सुना। मेरा मस्तक शास्त्र के प्रति श्रद्धा से झुक गया। गुरु महाराज की वन्दना की। उन का स्नेह और गम्भीरता से परिपूर्ण आशीर्वाद पाया। शास्त्र खोला। कानों से होते हुए गुरु महाराज का स्वर हृदय में उतरा, "संजोगा विप्पमुक्कस्स, अणगारस्स भिक्खुणो।" मुझे लगा, यह स्वर मैं सुनता ही जाऊँ"""सुनता ही जाऊँ परन्तु गाथा पूर्ण करते ही गुरु महाराज बोले, "तू इसकी हिन्दी पढ़।" मैंने पढ़ी। उन्होंने विस्तार से गाथा का भाव समझाया।
'श्री उत्तराध्ययन सूत्र' जीवन में प्रथम बार मैंने इसी पद्धति से पढ़ना प्रारम्भ किया। गुरु महाराज मूल पढ़ते। मैं हिन्दी अर्थ पढ़ता और वे मुझे शास्त्र-गाथाओं का मर्म समझाते। कुछ दिन इसी तरह पढ़ाई चलती रही। एक दिन सहसा उन्होंने कहा, "अब मूल गाथा को तू पढ़।" मैंने मूल पढ़ने का प्रयत्न किया। मुझे कठिन लगा। मैं कह बैठा, "गुरुदेव! ये तो चलता नहीं। मैं हिन्दी-हिन्दी पढ़ लूंगा।" यह सुन वे
हंसे। बोले,
"अभ्यास कर। ये तो खूब चलेगा।" आज भी उनके ये शब्द मेरे मानस में गूंज रहे हैं, "ये तो खूब चलेगा""ये तो खूब चलेगा।" जो हौंसला इन शब्दों से मुझे उस समय मिला था, वह आज भी जीवित है। उसी की बदौलत मैं ज्ञान-मार्ग पर दो-चार कदम चल सका।
उस समय भी इन शब्दों ने मुझ पर जादू का-सा असर किया था। अपनी अल्प-मति के अनुसार मैं अभ्यास में जुट गया था। इसके