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योजक यह है कि समुद्रपाल मुनि ने मुनि-धर्म का जो ज्ञान भगवान् महावीर से प्राप्त किया था, उसी को कालान्तर में जनता को उपदेश देते हुए प्रकट किया। एक सम्भावना तो यह है। दूसरी सम्भावना यह है कि मुनि-दीक्षा धारण करने के उपरान्त समुद्रपाल मुनि भगवान् के चरणों में गये और उन से सम्यक् मुनि-धर्म की शिक्षा देने के लिये प्रार्थना की। तब सर्वज्ञ प्रभु ने उन्हें मुनि-धर्म की जो शिक्षा दी, वही ग्यारहवीं गाथा से 'समुद्रपालीय' अध्ययन में प्रस्तुत है। योजक की पहली सम्भावना के अनुसार समुद्रपाल मुनि भगवान् के उपदेशों के माध्यम बनते हैं। दूसरी सम्भावना के अनुसार भगवान् स्वयं अपने मुखारविन्द से मुनि-धर्म का स्वरूप उजागर करते हैं। जहां तक मैं समझता हूं-दूसरी सम्भावना अपेक्षाकृत अधिक संगत है। इसी को योजक रूप में स्वीकार करना अपेक्षित है। इसलिये कि 'उत्तराध्ययन' भगवान् की वाणी है और यही योजक रूप के स्तर पर भी हमें भगवान् के अपेक्षाकृत अधिक निकट पहुंचाता है। उत्तराध्ययन और मैं
'श्री उत्तराध्ययन सूत्र' मुझे पूज्य गुरुदेव योगिराज श्री रामजीलाल जी महाराज के मुखारविन्द से पढ़ने का सौभाग्य मिला था। उन्हीं की उंगली थाम कर संयम के मार्ग पर मैंने खड़ा होना और चलना सीखा। उन्हीं से मैंने स्वाध्याय कर सकने वाली दृष्टि पायी। पहले-पहल आगम-ज्ञान का आनन्द अनुभव करना सीखा। जीवन के सत्य-असत्य को पहचानने का बोध पाया। विवेक-सम्मत सांसें पायीं। संयम-मूल्यों की धड़कनें पायीं। मेरे व्यक्तित्व का कण-कण उनकी कृपा के आधार पर जीवित है। आज भी उस आधार की ओर जब कभी मैं देखता हूं तो जीवन के प्रत्येक संदर्भ में प्रकाश मुझे मिल जाता है। वह प्रकाश कभी कम नहीं पड़ता। मेरी पात्रता भले ही कम पड़ जाये।
ऐसे समर्थ गुरु से शास्त्र-ज्ञान प्राप्त करना वस्तुतः एक सम्पूर्ण अनुभव है, जिसकी स्मृति भी रोम-रोम में ऊर्जा भर देती है। मुझे अच्छी तरह याद है-'उत्तराध्ययन सूत्र' मुझे पढ़ाने से पूर्व उन्होंने इसकी महत्ता का प्रतिपादन मेरे सम्मुख किया था। बताया था-"भगवान् की परम पावन वाणी वर्तमान में बत्तीस शास्त्रों के रूप में उपलब्ध है।