SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सभी स्नेहों से रहित होकर (स्वधर्मानुष्ठान में) हे गौतम! क्षण भर का (भी तुम) प्रमाद न करो । २६. धन व पत्नी (आदि) को छोड़ कर तुम ‘अनगारता' हेतु प्रव्रजित (घर से निकले) हुए हो। (उन) वमन किये हुए (धनादि काम-भोगों) का पुनः मत पान करो। हे गौतम! (स्वधर्मानुष्ठान में) क्षण भर का (भी तुम) प्रमाद न करो। ३०. मित्र, बान्धव तथा विपुल धन-राशि के संचय का परित्याग कर, दुबारा उनकी गवेषणा (प्राप्ति की इच्छा या चेष्टा) मत करो। हे गौतम! (स्वधर्मानुष्ठान में) क्षण भर का (भी तुम) प्रमाद न करो। ३१. (भविष्य काल में तो लोग कहा करेंगे कि) “आज 'जिन' (तीर्थकर तो) दृष्टिगोचर हो नहीं रहे हैं, और जो मार्ग-दर्शक हैं (भी, वे) अनेक मतों (विचारों व मतान्तरों) वाले (एवं एकमत न रखने वाले) दीख रहे हैं" (या, ऐसा कहा करेंगे कि “हमारे सामने तीर्थंकर तो हैं नहीं, मात्र उनका मोक्षदायक मार्ग है"), (किन्तु) आज (तो तुझे, उपदेष्टा तीर्थंकर की उपस्थिति में, उनका) न्यायसंगत (या दुःख को क्षीण करने तथा संसार-सागर को पार कराने वाला) मार्ग (भी प्राप्त है, उस) में हे गौतम! क्षण भर का (भी तुम) प्रमाद न करो । ३२. कांटों के मार्ग को छोड़ कर 'महालय' मार्ग (तीर्थंकर आदि महापुरुषों द्वारा सेवित विशाल राजमार्ग) पर चल पड़े हो, (अतः उसी) मार्ग पर दृढ़ निश्चय के साथ चलते चलो, हे गौतम! (इसमें) क्षण भर का (भी तुम) प्रमाद न करो। ३३. अबल (बलहीन) भारवाहक की तरह, तुम विषम (ऊबड़-खाबड़) मार्ग में न चले जाना। (अन्यथा) बाद में पश्चाताप करने वाला होना पड़ेगा, (इसलिए) हे गौतम! क्षण भर का (भी तुम) प्रमाद न करो। अध्ययन-१० १६७
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy