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सर्वविदित है कि तीर्थंकर वस्तुतः अर्थ कहते हैं। गणधर उस अर्थ को सूत्र में पिरोते हैं। उसे गद्य या पद्य का रूप देते हैं। यह रूप विषयवस्तु की प्रकृति के आधार पर दिया जाता है। जो विषय-वस्तु जिस रूप में सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति पा सकती है, उसके लिये वही रूप गणधर चुनते हैं, उसी का प्रभावक अभिव्यक्ति के लिये प्रयोग करते हैं। प्रश्नोत्तर शैली भी गद्य का एक रूप है। इस रूप में भी गणधरों ने भगवान् द्वारा प्रतिपादित अर्थ ही अभिव्यक्त किया है। गणधरों द्वारा भगवान् की स्तुति सम्भव ही नहीं, सहज और वांछनीय भी है। ऐसे में यह प्रश्न स्वयं ही निरर्थक हो जाता है कि भगवान् स्वयं अपने मुख से अपने लिये प्रशंसा या स्तुति परक शब्द कैसे कह सकते थे?
'केशि-गौतमीय' अध्ययन की प्रतिपाद्य अन्तर्वस्तु है-बदलते समय में धर्म का सर्वोचित एवम् सर्व-सम्मत रूप स्थिर करना। प्रत्येक तीर्थंकर अपने समय के अनुरूप धर्म-रूप निर्धारित किया करते हैं। भगवान् महावीर ने भी धर्म का युग-सम्मत रूप स्थिर किया था। भगवान् पार्श्वनाथ के युग में प्रचलित चातुर्याम धर्म का पंचयाम धर्म में रूपान्तरण किया था। उद्देश्य था-उस युग में धर्म-रथ की निरन्तर गतिशीलता। उस युग के मनुष्य की प्रकृति के लिये धर्म का जो रूप सहजता से बोधगम्य था, वही रूप सर्वज्ञ प्रभु ने प्रदान किया। इस ऐतिहासिक रूपान्तरण की अंतर्वस्तु को सांगोपांग अभिव्यक्ति देने के लिये जो रूप सर्वाधिक समर्थ था, वही रूप 'केशि-गौतमीय' अध्ययन का है। यह रूप किस के द्वारा निर्मित हुआ, यह निश्चित नहीं है। श्रुतपरम्परा से उपलब्ध आगम के रूप के विषय में यह निश्चित होना संभव भी नहीं है। यह पूर्णतः निश्चित है कि भगवान् ने अपने युग के मनुष्य को ध्यान में रखते हुए धर्म का स्वरूप पुनः निर्धारित किया। मूल सत्य यही है। 'केशि-गौतमीय' अध्ययन वस्तुतः इसी मूल सत्य का जय-घोष है। यह सत्य गणधरों व श्रुत-धर स्थविरों से होते हुए हम तक पहुंचा। यह भी सत्य है। ऐसे में उक्त अध्ययन के रचनाकार का नाम-निर्धारण हो या न हो, इस से मूल सत्य किंचित् भी प्रभावित नहीं होता। माध्यम चाहे गणधर हों या श्रुतधर स्थविर, सम्पूर्ण'उत्तराध्ययन' में मूल स्वर भगवान् महावीर का ही है। आवश्यकता मूल स्वर पर ध्यान केन्द्रित करने की अधिक है, माध्यम पर नहीं। अस्तु।