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में तथा आचार्य नागार्जुन के नेतृत्व में वल्लभी (सौराष्ट्र) में वीर निर्वाण 827 से 840 के मध्य आगम-वाचनायें की गईं। वीर-निर्वाण की दसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में पुनः दुर्भिक्ष पड़ा। ज्ञान की व्यवस्था व सुरक्षा की चुनौती पुनः उत्पन्न हुई।
इस चुनौती को स्वीकार किया आचार्य देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण ने। वीर निर्वाण 980 में वल्लभी नगरी में पांचवीं आगम-वाचना सम्पन्न हुई। विशेषता यह कि इस वाचना में इतिहास में प्रथम बार आगमों को लिखित रूप दिया गया। आगम-ज्ञान लिपिबद्ध हुआ। वर्तमान में उपलब्ध बत्तीस आगम इसी वाचना के कृपा-फल हैं। इन फलों में से एक महत्त्वपूर्ण फल है-उत्तराध्ययन सूत्र।
वर्तमान का सौभाग्य है कि ज्ञान के साथ इतिहास में समय-समय पर होने वाली दुर्घटनाओं से प्रभु-वाणी द्वारा प्रदत्त अंतिम ज्ञान 'उत्तराध्ययन सूत्र' के रूप में सुरक्षित रह गया। इस ज्ञान ने न जाने कितनों का वर्तमान और भविष्य सुरक्षित कर दिया। न जाने कितनों का कल्याण कर दिया। इसके लिये इतिहास आचार्य देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण का ऋणी है। जिन महान् मनीषियों के कारण 'उत्तराध्ययन सूत्र' भगवान् महावीर से हम तक पहुंचा, उन में आचार्य देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण का अत्यधिक महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस ज्ञान-श्रृंखला को वर्तमान तक पहुंचाने वाले सभी महापुरुषों के पावन चरणों में सम्पूर्णत: नमित होकर मैं भी आनन्द अनुभव करता हूं। उत्तराध्ययन : कूछ जिज्ञासायें - आनन्द के स्रोत 'उत्तराध्ययन सूत्र' के विषय में समय-समय पर अनेक जिज्ञासायें व्यक्त की जाती रही हैं। इन में से एक प्रमुख जिज्ञासा यह है कि इस सूत्र का रचनाकार कौन है? सर्वविदित है कि यह सूत्र अनेक शैलियों के रूप में सूत्रित है। इन में से एक प्रश्नोत्तर-शैली भी है। इसके जो अध्ययन प्रश्नोत्तर शैली के रूप में हैं, उनके विषय में रचनाकार के प्रति जिज्ञासा अपेक्षाकृत अधिक प्रबल है। 'केशि-गौतमीय'
और 'सम्यक्त्व-पराक्रम' ऐसे ही अध्ययन हैं। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि ये अध्ययन वस्तुत: स्थविर-कृत हैं और 'उत्तराध्ययन' अनेक-कर्तृक आगम है।