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इस यात्रा के दौरान ज्ञान पूर्ववत् अक्षुण्ण नहीं रह सका। विशाल ज्ञान को धारण कर सकने की क्षमताओं का हास होता गया। बीच-बीच में भयंकर दुष्काल पड़े। श्रुत-सम्पन्न मुनि काल-कवलित भी हुए। परिणामतः ज्ञान-परम्परा छिन्न-भिन्न हुई। गणधर सुधर्मा स्वामी द्वारा प्रदत्त ज्ञान-सम्पदा का हास हुआ। ज्ञान को अधिकतम संभव सीमा तक सुरक्षित रखने की आवश्यकता इतिहास ने उत्पन्न की।
इस आवश्कता के प्रति वीर-शासन के आचार्य व मुनि सचेत थे। इसीलिये समय-समय पर अनेक मुनि-सम्मेलन आयोजित किये गये। उन में आगमों की वाचनायें की गईं। प्रभु-निर्वाण के पश्चात् बारह वर्षों का दुष्काल पड़ा। उसके बाद पाटलिपुत्र में आचार्य सम्भूत विजय ने मुनि-सम्मेलन व आगम-वाचना-आयोजित की। इस प्रथम वाचना में एकादशांगी के पाठ संकलित किये गये। बारहवें अंग-दृष्टिवाद का ज्ञान प्राप्त करने मुनि स्थूलिभद्र नेपाल में महाप्राण-साधना-लीन आचार्य भद्रबाहु के श्री-चरणों में पांच सौ मुनियों के साथ गये। अन्य मुनि दृष्टिवाद का अध्ययन करने में असमर्थ होने के कारण लौट आये। एकमात्र स्थूलिभद्र मुनि दत्त-चित्त हो वाचना ग्रहण करते रहे। उन्होंने दृष्टिवाद के प्रमुख अंग : चौदह पूर्वो में से दस पूर्वो का ज्ञान पाया। इतना ज्ञान पाकर भी वे अपने दर्शनों हेतु आईं साध्वी बहिनों के सम्मुख चमत्कार प्रदर्शन का मोह नहीं छोड़ सके। सिंह का रूप बना गुफा-द्वार पर बैठ गये। आचार्य भद्रबाहु ने यह जान कर उन्हें अपात्र माना और आगे वाचना देने से मना कर दिया। बारम्बार क्षमा मांगते हुए प्रार्थना करने पर आचार्य ने उन्हें शेष चार पूर्वो की मात्र शाब्दी वाचना प्रदान की। इस प्रकार वीर-निर्वाण के 160 वर्षों के बाद चार पूर्वो के ज्ञान का विच्छेद हो गया। शेष ज्ञान गुरु-शिष्य-परम्परा के रूप में प्रवाहित होता रहा।
आगमों की दूसरी वाचना उड़ीसा के इतिहास-प्रसिद्ध जैन सम्राट खारवेल के सद्प्रयत्नों से उड़ीसा के कुमारी पर्वत पर हुई। वीर निर्वाण के 300 से 330 वर्षों के मध्य संपन्न हुई इस वाचना में ज्ञान की व्यवस्था पुनः की गई। वीर-निर्वाण की नौवीं शताब्दी में पुनः भयानक दुष्काल पड़ा। दुष्काल-समाप्ति पर आचार्य स्कदिल के नेतृत्व में मथुरा