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४५. इस अर्थ (भरी बात) को सुनकर (राज्य-कोष-वृद्धि या भौतिक
समृद्धि को प्राप्त करने की अपेक्षा, अकिंचनता की स्थिति स्वीकार करना क्यों उचित है-इसके सम्बन्ध में) हेतु व कारण (की जिज्ञासा) से प्रेरित देवेन्द्र ने तब 'नमि' राजर्षि से यह कहा
४६. “हे क्षत्रिय! आप हिरण्य' -सुवर्ण मणि-मुक्ता, कांसे (आदि के
बर्तन), वस्त्र, वाहन व राज्य-कोष को बढ़ा कर (अर्थात् समृद्ध करने के बाद) (दीक्षा-हेतु) जाएं"।
४७. इस अर्थ (भरी बात) को सुनकर, (भौतिक समृद्धि की आकांक्षा
अपूरणीय होती है, तथा तपश्चर्या सर्वमनोरथों की साधिका है-इस तथ्य के विषय में) हेतु व कारण (को बताने के उद्देश्य) से प्रेरित 'नमि' राजर्षि ने तब देवेन्द्र को यह कहाः
४८. "भले ही कैलाश पर्वत के समान, चांदी-सोने के असंख्य पर्वत
(प्राप्त) हो जाएं, फिर भी लोभी व्यक्ति को उनसे कुछ भी (तृप्ति व सन्तोष आदि) नहीं होता । वास्तव में इच्छा (तृष्णा) आकाश के समान अनन्त (अन्त-रहित) हुआ करती है।"
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४६. (“यह समस्त) पृथ्वी, चावल-जौ, (एवं अन्य धान्य), तथा पशुओं
के अतिरिक्त सोना, (चांदी आदि धातुएं) - ये सब (मिल कर भी) एक (व्यक्ति) की भी इच्छा पूरी करने में पर्याप्त नहीं हो पातीं-यह जान कर, (विद्वान् साधक जिनोक्त) तपश्चरण (का अनुष्ठान ही) करे (यही श्रेयस्कर है)।"
१. हिरण्य अर्थात् चांदी, या घड़ा हुआ सोना । २. सुवर्ण अर्थात् सोना या सुंदर वर्ण का विशिष्ट सोना या कि घड़ा हुआ सोना ।
अध्ययन-६
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