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४०. "जो (व्यक्ति) प्रत्येक मास दस लाख गायों को (भी) दान करे,
उसके (कार्य की अपेक्षा) कुछ भी दान (आदि) न देने वाले (मुनि) का संयम श्रेयस्कर है।
४१. इस अर्थ (भरी बात) को सुनकर, (गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी
तो धर्म-साधना सम्भव है, फिर क्यों सन्यास स्वीकार किया जा रहा है- इस विषय में) हेतु व कारण (की जिज्ञासा) से प्रेरित देवेन्द्र ने तब 'नमि' राजर्षि से यह कहा
४२. “हे मनुजाधिप! आप घोर आश्रम' (गृहस्थ आश्रम, या वैदिक ,
परम्परा में मान्य चान्द्रायण आदि व्रत, या तापस-सम्प्रदाय में प्रचलित कठोर तपस्या) को त्याग कर (अर्थात् स्वीकार न कर) अन्य (मुनि-चर्या वाले श्रमणोचित) आश्रम की प्रार्थना (इच्छा) कर रहे हैं, (क्या यह उचित है? मेरा तो निवेदन यही है कि आप) इसी (गृहस्थाश्रम) में रह कर पौषध (अनशनादि व्रतों)
में रत-तत्पर हों।" ४३. इस अर्थ (भरी बात) को सुनकर, (बाल तपस्या के घोर/दुष्कर
होते हुए भी उसकी अपेक्षा जिन-धर्म श्रेष्ठ है- इस तथ्य के प्रतिपादक) हेतु व कारण (को बताने के उद्देश्य) से प्रेरित 'नमि' राजर्षि ने तब देवेन्द्र को यह कहा
४४. “जो (कोई) अज्ञानी (साधक) महीने-महीने भर के तप कर, कुश
की नोंक (से या उस) पर जितना आये, उतना ही (पारणा में) आहार ग्रहण करे, किन्तु 'सु-आख्यात' (जिनेन्द्र द्वारा सम्यक् प्रतिपादित सर्वसावद्य-विरति रूप मुनि) धर्म की सोलहवीं कला (की समानता) को (भी) नहीं पा सकता।"
१. विविध सांसारिक समस्याओं व उत्तरदायित्वों के कारण दुष्कर होने से गृहस्थाश्रम को 'घोर'
कहा गया प्रतीत होता है। घोर आश्रम का अर्थ 'तापसादि की उग्र वाल तपस्या' भी किया
गया है। अध्ययन-६
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